14 फरवरी साल में एक मर्तबे आता है। 14 फरवरी याने ‘वेलेन्टाईन डे याने पे्रम के इजहार का दिन। किन्तु, प्रेमियों और राजनीतिज्ञों को हर दिन वेलेन्टाईन मनाते देखा जा सकता है। खास कर पालिटिशियन चुनाव की मौसम में एक दूसरे को ‘बी माय वेलेन्टाईन कहने से नहीं चुकते। राजनीति में वेलेन्टाईन के अनेक प्रकार हैं। यंू तो वेलेन्टाईन एक आदर्श व पवित्र भावना है। ‘प्रेम तन-मन को स्वस्थ रखता है। चित्त को शान्त करता है। किन्तु, पालिटिक्स में एक-दूसरे के वेलेन्टाईन बनने वाले नेता तन-मन को स्वस्थ व शान्त करने के लिए एक-दूसरे को धक्का मारते हैं। एक दूसरे के विरूद्ध विचारधारा वाले हंसते-हंसते आपस में हाथ मिलाते हैं और ‘बी माय वेलेन्टाईन इस प्रेममंत्र का उच्चारण करते हैं। तब समझ जाना चाहिए कि पालिटिकल वेलेन्टाईन शुरू हो गया है। ऐसा नजारा चुनावी मौसम में ही दिखाई देता है। ऐसे समय वे कोरोना व उसके नियमों की धज्जियां भी उड़ा देते हैं।
देश के हाल के पालिटिकल ट्रेलर पर नजर डालें तो जो पार्टी अपना बहुमत खो देने की ज्यादा चिन्ता करती है, वह प्रतिपक्ष याने विपक्ष के वोटों को तोडऩे के लिए छोटी-छोटी पार्टियों के साथ ‘आई लव यू का खेल शुरू कर देती है। चुनाव के मद्देनजर 2021 के साल में एक-दूसरे को मिटाकर किसी अन्य ‘पार्टी के वेलेन्टाईन किस कारण बन गए होंगे? क्या वेलेन्टाईन भी परिवर्तनशील है? राजनीति में बेशर्मी को सदा सुहागन का आशीर्वाद है। राजनीति में शर्म खुद बेशरम होकर घुमती है। आज तो बेशरमों का ही बोलाबाला है। विधायकों का बाजार भरता है तब जानकारी होती है कि कौन सा माल अपने आदर्शों, मूल्यों और सिद्धान्तों के कारण ‘अनबिका रह गया और कौन सा माल अपने आदर्शों, मूल्यों और सिद्धांतों के एक्सचेंज आफर में ताबड़तोड़ बिक गया।
पे्रमियों, राजनीतिज्ञों के अलावा साल भर धार्मिक वेलेन्टाईन बाबा-बाबा, बाबा-शिष्य-शिष्या, आथिक वेलेन्टाईन बैंकों और खातेदारों के बीच भी ‘बी माय वेलेन्टाईन चलता है। शैक्षणिक वेलेन्टाईन शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच जिसमें ट्यूशन माध्यम बनता है। शिक्षक को एक समय गुरू का दर्जा दिया जाता है। उस समय की गुरू-शिष्य परम्परा नेपथ्य में चली गई है। वेलेन्टाईन रिश्वत के अनेक रंगों के पुष्पों को भी खिलाता है। ‘गिव एण्ड टेक भी वेलेन्टाईन का एक रूप है। मतलबपरस्ती ‘बी माय वेलेन्टाइन कहने विवश कर देती है।
बड़ी मछलियां भ्रष्टाचार के महासगार से बाहर होगी ?
सचिवालय से तहसील स्तर तक भ्रष्टाचार
वर्ष 2021-22 को यदि ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत वर्ष के रूप में मनाने सरकार तय कर दे तो जनता और देश का सर्वाधिक भला होगा। इसके लिए मोटी और बड़ी मछलियों को भ्रष्टाचार के महासागर से सबसे पहले बाहर करना होगा। इसके लिए भी मोटी मछलियों का आइडेंटिटी कार्ड बनाने प्रशासनिक अफसरों को उनके कार्यों व समृद्धि को नापने, मापदंड तय करने मेजरटेप साथ रख काम करना होगा। लेकिन यह कैसे संभव है बाबूलाल? चम्पक ने पूछा। यहां तो भ्रष्टाचार सर्वमान्य बना है। एक समय था जब भ्रष्टाचार को कलंक के रूप में देखा जाता था और वर्तमान में भ्रष्टाचार को ‘तिलक माना जा रहा है। कल तक जिसे सामान्य माना जाता था, आज वही भ्रष्टाचार सर्वमान्य हो गया है।
किसी भी राज्य के सचिवालय की प्रक्रिया में फाइल को निर्णय की मंजिल तक पहुंचने के लिए अनेक पद सौंपानों से गुजरना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप कार्यों में विलम्ब होता है। इससे प्रभावित व्यक्ति तक निर्णय को सूचना इतने समय बाद पहुंचती है कि तब तक निर्णय का कोई महत्व नहीं रह जाता है। वास्तव में सचिवालय की कार्यवाहियों में विलम्ब की समस्या ने लोकतंत्र के स्वरूप को भ्रष्ट करने में अपना समुचित योगदान दिया है। भ्रष्टाचार के अनेक रूप यही से पलते और पनपते हैं। भ्रष्टाचार की शुरूवात ही इसी तरह से होती है और फिर जिला स्तर, अनुविभाग स्तर और तहसील स्तर तक पहुंचती है। इसे ही ‘टाप टू बाटम भ्रष्टाचार कहते हैं। प्रत्येक राज्य में राज्यपाल भी होते हैं। वे जनता से मिलते हैं। उन्हें संबोधित भी करते हैं। जनता की शिकायतें भी सुनते हैं, शिकायती पत्रों को पढ़ते हैं और राज्य की सरकार को भेज देते हैं। विडम्बना यह कि संविधान में राज्यपाल को शक्तियां तो मिली है, किन्तु उसका प्रयोग करने में वे स्वतंत्र नहीं हैं। तात्पर्य कि, राज्यपाल संविधान प्रमुख तो हैं, किन्तु उन्हें प्रशासन में वास्तविक रूप से हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।
उसके बाद, राज्य के मुख्यमंत्री का नम्बर आता है। प्रमुख अधिकारों में वे अधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार रखते हैं। विधानसभा के नेता के रूप में भी वे कार्य करते हैं। मंत्रियों में मंत्रालयों (विभागों) का बंटवारा भी वे ही करते हैं। इसके अलावा भी कई अधिकारों से मुख्यमंत्री सुसज्ज रहते हैं। फलस्वरूप, मुख्यमंत्री की स्थिति राज्यपाल की अपेक्षा अधिक सशक्त व मजबूत होती है। इस प्रकार, मुख्यमंत्री राज्य का सर्व शक्तिशाली प्रशासक होते हैं।
इसके अलावा मित्रों, राज्य का सचिवालय विभिन्न विभागों में विभाजित रहता है। प्रत्येक विभाग में शीर्ष स्तर पर सचिव रहते हैं। यह जरूरी नहीं है कि एक सचिव, एक मंत्री के अधीन कार्य करे। वे एक से अधिक मंत्रियों के प्रति भी उत्तरदायी हो सकता है। वास्तव में वह सरकार का सचिव होता है। राज्य के सचिवालय के शीर्ष स्तर पर मुख्य सचिव होता है। वह सचिवालय के उचित एवं कुशल संचालन के प्रति उत्तरदायी होता है। वे मुख्यमंत्री के मुख्य परामर्शदाता भी होते हैं व राज्य के सचिवालय के प्रधान भी होते हैं। वास्तव में मुख्य सचिव प्रशासनिक अध्यक्ष मुख्य सचिव हैं। फलस्वरूप, प्रत्येक विभागों के कार्यों का अवलोकन करता है। मुख्य सचिव निर्धारित प्रशासनिक मापदण्डों तथा प्रतिक्रियाओं के अतिक्रमण व अनियमितताओं को रोकते हैं। लोक सेवाकीय व आचरण और ईमानदारी के उच्च स्तर का वे निर्धारण भी करते हैं। वास्तव में सचिवालय ही वह मूल केन्द्र है, जहां से राज्य के प्रशासन तंत्र को प्रशासकीय नेतृत्व प्राप्त होता है।
वास्तव में, स्वच्छ प्रशासन और जनहित आधारित कार्य प्रणाली ही किसी भी पार्टी की सरकार को लोकप्रिय व सुदृढ़ बनाती है। राज्य सरकार व जिला प्रशासन के बीच समन्वय व नियंत्रण तय करने राजस्व मंडल की रचना की गई है। जिला स्तर पर कलेक्टर याने जिला प्रशासन राजस्व मंडल को नियंत्रित करता है। जिला प्रशासन राज्य सरकार की समग्रता का प्रतिनिधित्व करता है। जिला स्तर पर आम आदमी प्रशासन के सीधे संपर्क में रहता है। वह क्षेत्रीय प्रशासन की इकाई के रूप में काम करता है। राजकीय राजस्व, खाद्य व नागरिक आपूर्ति, खनिज, आबकारी विभाग जैसे महत्वपूर्ण विभाग सीधे जिला प्रशासन के अधीन होते हैं। पंचायती राज में विकास की रूपरेखा तय होती है। जिला प्रशासन के निचले प्रशासन में एसडीएम, डिप्टी कलेक्टर, एडीएम, अतिरिक्त जिला अधिकारी, तहसीलदार आदि होते हैं। इसके बावजुद, प्रशासन में भ्रष्टाचार व अनियमितताएं विद्यमान हैं। वर्तमान में लोक सेवाओं में दिन-ब-दिन बढ़ रहा भ्रष्टाचार, अनियमितता जनता-जनार्दन की सर्वाधिक चिन्ता का विषय बना है।
इसका जिम्मेदार व दोषी किसे माने? मुख्य सचिव या मुख्यमंत्री या फिर प्र्रभारी मंत्री या प्रभारी सचिव या फिर कमिश्नर या फिर कलेक्टर? राजनैतिक भ्रष्टाचार की देखादेखी प्रशासनिक भ्रष्टाचार भी चरमसीमा पर हैं। शहरवासी ने संक्षिप्त में राज्य स्तर से लेकर जिला स्तर तक की कार्यप्रणाली का जिक्र किया और भ्रष्टाचार पर चिन्ता व्यक्त की। हालांकि, देश के विभिन्न राज्य सरकारों के द्वारा कहा जाता रहा है कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को हम नेस्तनाबुद कर देंगे, किन्तु भ्रष्टाचार हवा सदृश्य सर्वव्यापी हो गया है। जो राष्ट्र-राज्य की जनता का चिन्ता का सबब बना है।
न शासन, न प्रशासन, है तो केवल भ्रष्टाचार
हाल ही छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के परिवहन, विधि विधायी, आवास एवं पर्यावरण, वनमंत्री एवं जिले के प्रभारी मंत्री अकबर भाई ने डीएमएफ याने जिला खनिज संस्थान न्यास ‘शासी परिषद की अध्यक्षता की। सरकार के अनेक विभागों ने अपने अधीनस्थ कार्यों को अपूर्ण बताया। वर्ष 2017-18 एवं 2018-19 के कार्यों की अपूर्णता से प्रभारी मंत्री बेहद नाराज हुवे और संबंधित अधिकारियों को शो काज नोटिस जारी करने के निर्देश दिए। प्रभारी मंत्री अफसरों के कामकाज करने के तरीके से असन्तुष्ट दिखायी दिए। वास्तव में प्रभारी मंत्री ने अफसरों और उनकी फाइलों को ही देखा है और एक कक्ष में ही समीक्षा की है। सम्पूर्ण जिले में जमीनी स्तर पर विकास, राजस्व, जमीनी मामलों, न्यायिक मामलों का सर्वे या निरीक्षण किया जाता है तो ज्ञात होगा कि न शासन है, न प्रशासन है, है तो केवल भ्रष्टाचार जो नौकरशाहों की स्वैच्छारिता को साबित कर देगा।
शहर कांग्रेस कमेटी में खुलकर गुटबाजी?
लंबी प्रतीक्षा के बाद शहर कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कुलबीर छाबड़ा ने विगत दिनों अपनी नई टीम की घोषणा की। टीम ऐसी-वैसी नहीं, बल्कि जिला कार्यकारिणी जैसी। दो-दो दर्जन से अधिक पद थोक के भाव में बांट दिए गए। अभी जिला कार्यकारिणी की घोषणा बाकी है। ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि जिला कार्यकारिणी पता नहीं कितनी बड़ी होगी और एक-एक पद को न जाने कितने लोगों को बांटा जाएगा? पार्टी में अंदरूनी चर्चा सरगर्म है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को दे, की तर्ज पर अपने करीबियों को उपकृत किया गया है। पार्टी के भीतर इसे लेकर कई तरह की शिकायतें भी सामने आ रही है।
चर्चा है कि इस टीम में महापौर हेमा देशमुख, जितेन्द्र मुदलियार, हफीज खान सहित कई नेताओं और उनके समर्थकों को टीम में तवज्जो नहीं दी गई है। पार्टी के भीतर नई नियुक्तियों को लेकर सवाल उठने से यह साफ है कि आगे चलकर मामला तूल पकड़ सकता है। वैसे शहर कांग्रेस में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के दौरान भी कुलबीर छाबड़ा को शहर अध्यक्ष बनाया गया था, किंतु वे ”एकला चलो की तर्ज पर चलते रहे है और पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं की नाराजगी से बचने के लिए कार्यकारिणी का गठन ही नहीं किया था। यह संयोग रहा कि उन्हें दोबारा अध्यक्ष बनने का मौका मिला, किंतु साल भर तक माथा-पच्ची के बाद जो कार्यकारिणी घोषित की गई, वह अब विवाद का कारण बनने जा रही है।
दरअसल किसी भी दल नेता को ‘मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक की तरह सभी वर्ग और क्षेत्र का ध्यान रखकर सबको समान रूप से अवसर दिया जाना चाहिए, ताकि कोई बखेड़ा ही खड़ा न हो। शहर कांग्रेस की टीम में कई ऐसे नाम भी हैं, जिनकी लंबे समय से पार्टी स्तर पर सक्रियता ही नहीं रही है। संगठन में बढ़ते असंतोष को लेकर प्रदेश हाईकमान को भी कुछ नेताओं द्वारा जानकारी भेजी गई है, ऐसे में कांग्रेस के भीतर घमासान होने की आशंका जताई जा रही है।
- शायर बशीर भद्र की दो लाइनें-
कहां तो तय था चिरागां, हरेक घर के लिए,
कहां चिराग मयस्तर नहीं, शहर के लिए।
– दीपक बुद्धदेव