2022 की शुरुआत में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा शाह फार्मूला के आधार पर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दिल्ली दौरे के दौरान पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात में चुनाव की रणनीति पर मंथन हुआ। पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि पार्टी 2022 में फिर उसी शाह फॉर्मूले के आधार पर चुनावी मैदान में उतरने जा रही है जिसके बल पर उसने 2017 में प्रचंड जीत हासिल की थी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दिल्ली दौरे के दौरान अपना दल(एस) की नेता और सांसद अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी की प्रमुख संजय निषाद ने जिस तरह केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की उससे पार्टी की बदली रणनीति को आसानी से समझा जा सकता है। दरअसल अपना दल और निषाद पार्टी यूपी में भाजपा की सहयोगी पार्टी है लेकिन बीते चार सालों में इनकी भाजपा से नाराजगी की खबरें भी सामने आती रही है।
दरअसल 2017 में मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ने वाली भाजपा ने पिछड़ी जातियों के वोट बैंक को एकजुट कर 325 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं राजनीति के जानकार कहते हैं कि बीते चार सालों में योगी सरकार की नीतियों के चलते पिछड़ी जातियों भाजपा से नाराज है और भाजपा को 2022 के चुनाव में उसके छिटकने काडर लग रहा है।
जातियों के हाथ में सत्ता की चाबी!-देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अगर जातीय समीकरण को देखा जाए तो सत्ता की चाबी छोटी जातियों के हाथ में ही दिखती है। यूपी में राजभर, निषाद, दलित में गैर जाटव, पटेल, कुशवाहा, जाट आदि का चुनाव में जिस पार्टी के ओर झुकाव होता है वह दल जीत हासिल करता है। अगर 2012 और 2017 के चुनावी डेटा को एनलिसिस किया जाए तो समाजवादी पार्टी और भाजपा को सत्ता तभी मिली जब दोनों पर्टियों को अपने कोर वोटर के साथ इन जातियों का खुलकर साथ मिला।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2022 के चुनाव में भाजपा को छोटी पार्टी के साथ जाना भाजपा की मजबूरी है। अगर पूरा सवर्ण समाज एकजुट होकर वोट करे तब भी बीजेपी कभी सत्ता हासिल नहीं कर सकती। इसलिए उन्हें ऐसी जातियों की जरूरत होती है। असल में यूपी में राजभर, निषाद, दलित में गैर जाटव, पटेल, कुशवाहा जातियों की मदद से ही बारी-बारी सभी को सत्ता मिली।
अगर उत्तर प्रदेश के जातीय और सामजिक समीकरण को देखे तो राज्य में सबसे अधिक असरकारक ओबीसी वोटर है जो 41.5 फीसदी वोट बैंक के साथ करीब 150 सीट पर जीत हार तय करने में प्रभावी भूमिका निभाते है। वहीं 21 फीसदी दलित वोटर 100 सीटों पर अपने दम पर पांसा पलटने में सक्षम है। वहीं मुसलमान 18.5 फीसदी, सवर्ण 19 फीसदी वोटर अपनी परंपरागत पार्टियों के साथ ही पिछले चुनावों में नजर आ रहा है।