बीता एक साल एक युग जैसा लगा था। कोविड महामारी के 19 माह के अंधकार ने देश व जनता को झकझोक कर रख दिया था। आत्मविश्वास और देशाभिमान के दीपक ने कोरोना पर जीत हासिल की है। अगर ईश्वर की कृपा मेहरबान हो तो दीया तूफान से भी टक्कर लेता है और सतत जलते रहता है। विक्रम संवत 2078 की शुरूवात अच्छी हुई है। दीपावली का स्वागत भी शहरवासियों ने तहेदिल से किया। शुभकामनाओं का परस्पर आदान प्रदान भी खूब हुआ। दिवाली के बाद से ही सन्नाटा छाया हुआ था। 4-5 दिनों तक व्यापार-व्यवसाय लगभग बंद ही रहे। बाजार सूना रहा। निर्माणाधीन भवनों के काम तो अभी भी बंद हैं। गांव-गांव में मड़ई का दौर चल रहा है। शिवनाथ नदी तट त्रिदिवसीय मोहारा मेला सम्पन्न होगा तभी शायद दिहाड़ी कमैया काम पर लौटेंगे।
इसी बीच स्टेट ग्राउंड में हुए कवि सम्मेलन से शहर का सिनेरियों चेंज हुआ। राष्ट्रीय उत्सव समिति के स्थापक स्व. विजय पांडे के अल्पआयु में ही शांत होने के बाद उनका बेटा तथागत पिता के बताए रास्तों पर चल पड़ा है। संस्कारधानी शहर में सार्वजनिक आयोजन फिर वह धार्मिक हो या सामाजिक हो, या सांस्कृतिक, उसे सफल बनाने में चंदादाताओं का बड़ा योगदान होता है। फिर, दशहरा, कवि सम्मेलन हो या अन्य कोई आयोजन सरकारी अनुदान भी सहज में मिल जाता है।
नाम बड़े, दर्शन छोटे
कवि सम्मेलन में शीर्ष कवियों में डॉ. कुमार विश्वास और डॉ. सुरेन्द्र दुबे ने अपनी कविताओं के माध्यम से अपने विचारों को शेयर किया। राज्य सरकार की प्रशंसा बड़ी उदारता से की तो महंगाई, भारी भरकम ऋण, अर्थव्यवस्था, अच्छे दिन बाबत परोक्ष में केन्द्र सरकार की खिंचाई भी की। कविगण चतुर थे। प्रशंसा के पुष्प बरसाने में उदार मन रखा और अपने सुखद भविष्य को संजोए रखा। थोड़ी भाटगिरी करना भी लाचारी होती है, जब सरकार से ही रूबरू हो रहे हों। शहर के वर्तमान क्रीमीलेयरों के हुजूम का जमावड़ा भी था। वैसे, श्रोतागणों बनाम जनता ने कवि सम्मेलन का अच्छा लुफ्त उठाया। वे सुनते रहे, हसते रहे और शुरूवाती दौर बड़ा मनोरंजक रहा। कहते हैं ना, मानवी का हास्य ईश्वर का संतोष है। बहरहाल, कवि सम्मेलन सो-सो याने सामान्य रहा। इसे समझने के लिए यह भी कह सकते हैं कि, ‘‘नाम बड़ा दर्शन छोटा’’
सरकार पर कटाक्ष: कर्ज लेकर घी पियो
कवि सम्मेलन में कुमार विश्वास कविता के साथ-साथ प्रवचन भी देने लगते थे। अप्रत्यक्ष रूप से कुमार विश्वास ने केन्द्र को लक्ष्य में रखकर कहा कि लाखों करोड़ का कर्जा देश में बुलेट ट्रेन चलाने लिया, जो आगामी 50 सालों में लौटाना होगा। 50 साल बाद क्या होगा? न कर्ज देने वाला रहेगा और न कर्ज लेने वाला रहेगा। कर्ज की मोटी राशि कागजों तक ही सीमित रहेगी। इसे ही कहते हैं- ‘‘कर्ज लेकर घी पियो’’। श्रोतागणों में एक जागरूक व्यक्ति की प्रतिक्रिया थी, ऐसा तो सभी सरकारें करती हैं। विडम्बना कि सरकार चलाने भी सरकार हजारों करोड़ का ऋण लेती है और सैकड़ों करोड़ का ब्याज भरती है। सरकार तो पांच साल के लिए आती है, भारी आर्थिक बोझ जनता पर परमानेंट बना रहता है। फलस्वरूप, विकास विनाश में बदल जाता है।
छत्तीसगढ़ की सरकार पर जून 2021 तक लगभग 77 हजार करोड़ के ऋण का बोझ था, जिस पर औसतन लगभग 418 करोड़ के ब्याज का भुगतान किया जा चुका है। यह भी तो कर्ज लेकर घी पीने जैसा ही है। इससे जरूरी विकास पर भी विराम लगा है। गढमढ सडक़ें, बर्बाद सडक़ों का दर्शन कराने में अमृत मिशन का भी रोल है। किसानों की बात करें तो उन्हें धान का बकाया बोनस नहीं मिला है। प्रत्येक ब्लाक में एक फूड पार्क स्थापित होना था, जिसकी अभी तक शुरूवात ही नहीं हुई है। छात्र-छात्राओं को मुफ्त साइकिलें अप्राप्त हैं। इस तरह की अनेक चुनावी घोषणाएं अपूर्ण हैं और तकरीबन तीन साल सरकार को होने आए हैं। वैसे, 36 जनघोषणाओं के विरूद्ध लगभग 40′ घोषणाएं पूर्ण हो गई है। विडम्बना यह कि खनिज न्यास निधि से जो शहर सहित जिले के विभिन्न विभागों में स्वीकृत राशि से अधिकांश कार्य अपूर्ण हैं। स्वास्थ्य, नगर पालिक निगम, ग्रामीण यांत्रिकी, क्रेडा, लोक निर्माण आदि विभिन्न विभागों में ‘‘सौ दिनों में चले अढ़ाई कोस’’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
सूबे के मुखिया ने केन्द्रीय वित्त मंत्री को आर्थिक बाबतों को केन्द्र में रखकर जो खत लिखा है, उससे स्पष्ट होता है कि प्रदेश की माली हालत कुछ ठीक नहीं है। केन्द्र सरकार से मुखिया ने प्राप्त होने वाले अनुदान और क्षतिपूर्ति का संदर्भ देकर फण्ड की मांग की है। जिसमें कोविड का भी हवाला है। जीएसटी की विसंगति का उल्लेख कर राजस्व की कमी का होना बताया है।
जनता महंगाई की बेदम मार से हलाकान है। राहत प्रदान करने सरकार कोई पहल भी नहीं कर रही है। खैर, विकास-विनाश का मुद्दा गौण हो जाए, इसके लिए राजकीय कुरूक्षेत्र में अ-धर्म युद्ध की तैयारी शुरू हो चुकी है। राम नाम सत्य है? या फिर मुख में राम, बगल में वोट?
राजनीति में प्रसाद को केन्द्र में रख होती है भक्ति
भाजपा का 15 सालों तक शासन सत्ता विरोधी लहर के चलते 16 वें साल में प्रवेश नहीं कर पाया। जिसका फायदा कांग्रेस को मिलना था, सो मिला। किन्तु, भाजपा राज में जो फायदा भाजपाईयों ने उठाया वैसे फायदे से कांग्रेसी उनकी ही सरकार में वंचित हैं। चंद कांग्रेसियों का कहना है, इससे अच्छा तो रमन राज था, वे हमारा भी ख्याल रखते थे। उनकी सरकार में हमारा भी काम होता था, बकायदा लिफाफा भी पहुंचता था। अब ये ही कांग्रेसी हताश हैं। लालबत्ती वाले भी खुश नहीं हैं। कार्यकर्ताओं की तो कोई पूछपरख ही नहीं हैं, कार्यकर्ताओं के समर्पण और भक्ति से ही नेताओं को जीत मिलती है। भक्त कोई भी हो, राजनीति का या धर्मनीति का, उसकी भक्ति पर उसे पूरा भरोसा होता है। प्रश्न यह कि ‘‘ऐसा भरोसा’’ भगवान को है या नहीं? यद्यपि धर्मनीति पर चलने वाला भक्त अपने ईष्टदेव को कभी अंधेरे में नहीं रखता। राजनीति के भक्त के लिए ऐसा कहना, यह थोड़ा अतिश्योक्ति कहलायेगा। अधिकांशत: राजनिष्ठ, राजभक्त (कुर्सी प्रेमी) पहले प्रसाद की प्लानिंग करते हैं और फिर प्रभुसेवा की। कई वरिष्ठ और अनुभवी राजभक्त अपनी राजभक्ति की इमारत, प्रसाद की नींव के आधार पर बनाते हैं। प्रसाद की बुनियाद जितनी गहरी, राजभक्ति की इमारत उतनी ही ऊंची होती है।
कार्यकर्ता या भक्त की सेवा को भले ही भूला दिया जाता हो, किन्तु ये ही सभी कार्यकर्ताओं या भक्ती की सेवा के कारण ही बड़े-बड़े, दिग्गज राजदेव और राजप्रभुगण सत्ता सिंहासन पर बैठते ही, राजसेवक बनते ही अपने ही कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने लगते हैं। उधर कार्यकर्ता तो अपने घर का नहीं रहता किन्तु घाट पर बने रहने के लिए लालीपाप की लालच में अपने राजदेव-राजप्रभु की सुगरकोटिंग करने में ही अपनी भलाई मानता है।
वैचारिक मतभेदों के बीच भी सरदार और नेहरू अभिन्न थे
आईएएस को सरदार का संदेश
भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तब प्रशासनिक सेवा बाबत ‘‘सरदार’’ साहब के विचारों और संकल्पों का स्मरण हो आया। 31 अक्टूबर आयी और गुजरात स्थित गगनचुम्बी सरदार की प्र्रतिमा मन में प्रगट उठी। सरकार वल्लभ भाई पटेल ने नवनियुक्त आई.ए.एस. अधिकारियों को 21 अप्रैल, 1947 के दिन सम्बोधित किया था। अपने सम्बोधन में उन्होंने कहा था- अब साहबगिरी का समय पूरा हो गया है और सेवाभाव का युग शुरू होता है। उन्होंने तीन अद्भूत शब्दों का उपयोग करते हुए कहा था कि आपके सिविल सर्विस के अधिकारियों को तीन गुणों को आत्मसात करना होगा। पहला गुण आभिजात्य, कुलिनता (डिग्नीटी) दूसरा है- प्रमाणिकता (इन्टीग्रिटी) और तीसरा है- अभ्रष्टनीयता (इनकरप्टेबिलीटी)। अधिकारी के वाणी-व्यवहार में कुलिनता जिसकी जड़ में शालिनता या लोकोत्तर सभ्यता समाहित होती है। प्रमाणिकता यह चारित्र्य और उद्देश्य पूर्ति में सद्भावना बतलाती है। अधिकारियों को कोई भ्रष्ट करने का विचार भी न कर सके, यह अभ्रष्टनीयता है।
गत 14 नवम्बर याने बाल दिवस याने जवाहर लाल नेहरू का बर्थ डे था। बच्चों के चाचा नेहरू का स्मरण भी यहां जरूरी हो जाता है। सरदार पटेल और नेहरू के बीच रहे मतभेदों को हर कोई जानता है। परन्तु, एक बात साफ है कि दोनों ही तत्कालिन शीर्ष नेता देश की आजादी के लिए प्रतिबद्ध थे। वे दोनों ही अपने मार्गदर्शक और गुरू महात्मा गांधी के प्रति निष्ठावान थे। दोनों ही गांधी जी के शब्दों को अंतिम आदेश मानते थे। फिलहाल तो इतना ही। कांग्रेस के उक्त द्वय नेताओं ने अपनी निजी खुशियां न्यौछावर कर अपना सम्पूर्ण जीवन देश सेवा में लगा दिया, इसे पूरा देश जानता है।
पाकिस्तानी शायरा हुमैरा राहत की नज्म गौरतलब –
अंधेरा डांट कर बोला
सुनो सूरज की ए नन्ही किरण
अब घर चली जाओ,
तुम्हारी राजधानी पर हुकुमत अब मेरी होगी।
किरण ने मुस्कुराकर
देवकामत (राक्षसी) और पुरेहैबत (भयावह)
अंधेरे पर नजर डाली,
तहम्मुल (धीरज) से यकीं और हौसले को
भर के अपने नर्म लहजे में कहा,
देखो! चली तो जाऊंगी लेकिन
हर इक दिल में रहुंगी
इक नई उम्मीद की सूरत
हर इक घर में मिलुंगी
तुम से लड़ता इक ‘‘दीपक’’ बनकर
सितारों से कभी झलकुंगी
उनकी रौशनी बनकर।
कभी मैं चांद से निकलुंगी उसकी चांदनी बनकर।
सुनो, मैं जा के भी मौजुद हुंंगी,
और तुम मौजुद होकर भी नहीं होगे!
- दीपक बुुद्धदेव