हर हर महादेव, नंद घेर आनंद भयो और घर-घर तिरंगा का महिमा गान सावन में हो रहा है। चम्पक शंकर दादा का कहीं मंदिर देखता तो जोर से ‘जय भोलेनाथ’ अवश्य बोलता है। अन्य मंदिरों में भी राह चलते कोई कृष्ण का मंदिर देखता है तो एक फिल्मी भजन अवश्य गुनगुनाता है-‘बड़ी देर भई नन्दलाला, तेरी राह तके ब्रजबाला, ग्वाल-बाल इक-इक से पूछे, कहां है मुरली वाला रे… संकट में है आज वो धरती जिस पर तूने जन्म लिया, पूरा कर दे आज वचन वो गीता में जो तूने दिया, कोई नहीं है तुझ बिन मोहन ‘भारत’ का रखवाला रे…।’
बाबूलाल चम्पक की हर मन:स्थिति से वाकिफ था। वह जानता था- चम्पक का भगवान पर अटूट विश्वास है। सावन के महिने में वह कुछ ज्यादा ही धार्मिक हो जाता है। आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान ‘घर-घर तिरंगा’ की भी मुहिम युद्धस्तर पर चलते देख आखिर बाबूलाल ने चम्पक से पूछा-मित्र! ‘घर-घर तिरंगा’ मुहिम राजनीतिक है या गैर राजनीतिक? उसका जवाब था- राजनीतिज्ञ और उनकी पार्टी जो भी मुहिम, विचार, निर्णय या कार्यक्रम-आयोजन करती है, उसके पीछे उसकी शत्-प्रतिशत राजनीतिक सोच रहती है। रही बेचारी जनता तो वास्तव में तो उन पर ये दो लाईने सटीक बैठती है- अय मेरे प्यारे वतन, अय मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुरबान, तू ही मेरी आरजू, तू ही मेरी आबरू, तू ही मेरी जान, अय मेरे प्यारे वतन…. समझे डीयर बाबूलाल देश की जनता तो वाकई में ‘राष्ट्रप्रेम’ से ओतप्रोत है। वह तो स्वस्फूर्त अपने-अपने घरों में तिरंगा फहरायेगी और देश प्रेम का अनूठा उदाहरण पेश करेगी। उनकी सोच तो स्वाभाविक रूप से गैर राजनीतिक है। रही राजनीतिज्ञों की बात तो उनकी राजनीति में राज करने की नीति ही सर्वोपरि होती है, बाकी सब सेकेंडरी होती है। ठीक पकड़ा तूमने चम्पक, बाबूलाल ने कहा- मैं भी तूझे चंद पंक्तियों में एक गीत सुनाता हूं, वह वर्तमान हालातों को समझने के लिए काफी है, सुनो….
आजादी आई भी तो क्या?
कायम है गुलामी की रस्में,
जनता का जीवन आज भी है,
सरमायेदारों के बस में।
जो गरीब थे और गरीब हुवे,
जो अमीर थे और अमीर बने
काला धन बंद तिजौरी में,
फिर देश की क्या तकदीर बने?
शाही की नहीं, नेता की नहीं,
दौलत की हुकुमत आज भी
इंसानों को जीने के लिए
पैसों की जरूरत आज भी है,
वो लोग जो कपड़े बुनते हैं,
वही लोग अधनंगे हैं
यह कैसी सोने की चिडिय़ा,
पग पग में यहां भीख मंगे हैं
आजादी आई भी तो क्या?….
खेती पेशा यह देश,
मगर आता है अनाज विदेशों से
हर गांव, हर शहर में आ पहुंचा बेकारी के अंदेशें से,
गोदाम में कैद किये बैठा कोई खेतों की जवानी को
जहां दूध की नदियां बहती थी,
वहां लोग तरसते पानी को,
अपना व्यापार बढ़ाने को मंदिर-मस्जिद को लड़ाते हैं।
इंसान नहीं, शैतान हैं ये
अनजानों को बहकाते हैं।
आजादी आई भी तो क्या?
अपने मंसूबों के लिए लड़ते हैं
लड़ाई सूबो की,
तलवार बनाकर भाषा को,
भारत को काटा करते हैं,
निर्धन न बगावत कर बैठे,
इसलिए ही यह धन वाले,
किस्मत की दुहाई देते हैं,
तकदीर की चर्चा करते हैं,
खाते हैं देश की रोटी
और गाते हैं गीत विदेशों के
इन्हें लाल कहेंं कि दलाल कहें,
ये मां को बेचा करते हैं।
आजादी आई भी तो क्या?
वाह बाबूलाल वाह, क्या खूब सुनाया, कवि इंदरजीत सिंह की ये पंक्तियां है जो आज भी सौ फीसदी प्रासंगिक है, चम्पक खिन्न होकर बोला। वाकई मित्र, आजादी आई भी क्या? शहरवासी चम्पक-बाबूलाल की देश को सामने रख की जा रही मटेरियल गुफ्तगू सुन, मन ही मन मुस्कुरा रहा था। उसने कहा-अमृत महोत्सव के इस वर्ष में जनता को ‘‘सुख-शांति’’ की अनुभूति क्यों नहीं हो रही है? कोई न कोई कहीं गरीबी, कहीं बेकारी, कहीं महंगाई, कहीं साम्प्रदायिकता, कही बीमारी से बेहद त्रस्त है। वास्तव में कार्य की स्वतंत्रता यह प्रगति और सुख-शान्ति का मुख्य आधार है। किन्तु, ऐसा अनुकूल वातावरण कहीं-कहीं ही देखने को मिलता है।
छोटा जिला होते ही राजनांदगांव में श्रेष्ठ प्रशासन देखने को मिलेगा ?
आजादी का अमृत महोत्सव 15 अगस्त 2022 को समाप्त होगा, वैसे ही आगामी माह सितम्बर में मानपुर-मोहला व खैरागढ़ जिला अस्तित्व में आ जाएगा और वहां जिला महोत्सव शुरू हो जाएगा, बाबूलाल ने कहा। चम्पक ने इसकी प्रतिक्रिया में कहा कि उन दो नए जिलों में खुशियां बिखरेगी और हमारे जिले में मातम छाएगा। दोस्त, परिवार-समाज में बंटवारा होता है तो इसे ट्रेजेडी कहा जाता है। फिर, राजनांदगांव जिले के बंटवारे की खबर को सुखद तो नहीं कहा जा सकता।
बाबूलाल-देखो चम्पक, इस बंटवारे को सुखद ही मानना चाहिए। हमारे क्षेत्रीय प्रशासन की इकाई का छोटा होना याने इसके भौगोलिक क्षेत्र का छोटा होना समझा जाना चाहिए। यह हमारे जिले के लिए पर्याप्त सुविधाजनक और व्यवहारिक होगा। हमारे नागरिक जीवन, हमारी सम्पत्ति व अधिकारों की सुरक्षा जिला कलेक्टर अब आसानी से कर सकेंगे। हमारी आवश्यकताएं व आंकाक्षाओं को जानने-समझने कलेक्टर पर्याप्त समय देंगे तथा राज्य व केन्द्र सरकारोंं को पूरे विवरण सहित प्रेषित करेंगे। इसके साथ ही सार्वजनिक हित के कार्यों का प्रबंध भी सरलता से होगा। लोगों के राजस्व मामले समयावधि में शीघ्रता से निपटेंगे। राजकीय राजस्व बढ़ेगा। कृषि, सिंचाई, उद्योग के साथ जनकल्याण तथा विकास के कार्यक्रमों को संचालित करने में भी आसानी रहेगी। खाद्यान्न और नागरिक आपूर्ति सीधा जनता से जुड़ा है। इसका सुपरविजन प्रापर होगा। भ्रष्टाचार की जनशिकायतों का निराकरण त्वरित होगा। जिला छोटा होने से प्रशासनिक क्षमता में वृद्धि होगी। कुल मिलाकर चम्पक यह कि जिले की जनता का अधिकाधिक कल्याण होगा।
ठीक कह रहे हो मित्र। नि:संदेह जिला स्तरीय प्रशासन राज्य प्रशासन का लघु रूप होता है। जिला छोटा होने से जनता को यह ज्ञात होने में भी समय नहीं लगेगा कि प्रशासन में कुशलता है या अक्षमता है। सरकारी नीतियों का कुशल क्रियान्वयन हो रहा है या नहीं हो रहा है। प्रशासन में सजगता और सक्रियता है या नहीं? छोटा होने से जिले स्तर की सभी संस्थाएं कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक, स्वास्थ्य अधिकारी, शिक्षा अधिकारी, खाद्य, आबकारी अधिकारी व जिला स्तर के निचले प्रशासन में एस.डी.ओ., डिप्टी कलेक्टर, उप जिलाधिकारी, अतिरिक्त जिला अधिकारी, तहसीलदार आदि का प्रशासन भी स्वाभाविक रूप से सुदृढ़ होगा, सशक्त होगा, कलेक्टर के निरीक्षण कार्य में गति आयेगी। अब बताओं चम्पक ये सब अच्छी बात है या नहीं?
लेकिन डीयर बाबूलाल, इन सबके लिए पर्याप्त प्रशासनिक अमला भी चाहिए। छत्तीसगढ़ में तो आई.ए.एस. अफसरों का टोटा है। कई तो प्रतिनियुक्तियों में हैं। वर्तमान में एक-एक आई.ए.एस. के पास अनेक विभाग हैं। यही चित्र संभागीय स्तर का भी है। अब इसे क्या कहें?
चम्पक ज्यादा मगजमारी मत कर। कुछ आने वाले समय पर छोड़ दे। देखना यह है कि इन दो नए जिले बनाने का राजनैतिक फायदा कांग्रेस को आगामी वर्ष में होने वाले विधानसभा चुनाव में मिलता है या नहीं? यह तो राजनैतिक हस्तक्षेप कम रहेगा या ज्यादा? इस पर निर्भर करेगा।
‘‘शशि’’ का यूं एकाएक चले जाना….
मित्रता ईश्वर की एक भेंट होती है। इसे कीमती आशीर्वाद भी कहना चाहिए। मित्रता स्वार्थ रहित होती है। जिनके सच्चे मित्र होते हैं, वे वाकई में धनी होते हैं। शहरवासी ने हाल ही अपना एक सच्चा जो बाल सखा भी था, खोया। वह था शशि…. याने शशिकांत अवस्थी। सिनेमा लाईन याने मोहल्ले में बचपन से साथ खेले-बढ़े। वह राजनीति में गया। लेकिन, कभी उसमें राजनैतिक अवगुण के दर्शन नहीं हुवे। मुसीबतों में भी चिर परिचित मुस्कुराहट, हंसी उसकी खास पहिचान थी। हर किसी से शांत मन से मिलना, हालात कितने भी कठिन हो, किन्तु कभी निराश न होना, यह उसकी खासियत थी। व्यस्तता के चलते मुलाकात कम रही, किन्तु, जब भी मिलना होता था, बड़े तपाक से मिलता था और उसकी विद्वतापूर्ण बातें सब दुश्वारियों को दूर कर देती थी।
एकाएक शशि का चले जाना दिल पर बोझ जैसा लगा। चूंकि, वह सद्गुणी था, इसलिए उसकी मृत्यु भी सुन्दर हुई। जन्म के समान मृत्यु भी तो एक प्रकृति का रहस्य है। यह रहस्य भी शायद शाश्वत है। मित्र शशि की आत्मा को चिरशान्ति प्राप्त हो, ईश्वर से यही प्रार्थना है।
हरिवंश राय ‘‘बच्चन’’ ने कहा है-
कटी बेडिय़ां और हथकडिय़ां
हर्ष मनाओं, मंगल गावो,
किन्तु यहां पर लक्ष्य नहीं है
आगे पथ पर पांव बढ़ाओ
हल्का फूल नहीं आजादी
वह है भारी जिम्मेदारी
उनकी पूजा करनी है तो
नक्षत्रों से होड़ लगाओ।
– शहरवासी