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समरथ को नहीं दोष गोसाई

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एक ऐसा भी समय था जब समाज में ऊंगलियों में गिने जा सके उतने कम संख्या में माफिया गतिविधियां चल रही थी। आज माफिया राज का ऐसा विकास हुआ है कि हर चार के बाद पांचवा व्यक्ति माफिया गतिविधि में लिप्त है। पहले तो केवल भू-माफिया जैसा ही शब्द कानों में पड़ता था। आज तो न जाने कितने माफिया हैं? जिधर देखो वहां माफिया ही माफिया हैं। जैसे कि, रेत माफिया, खनिज माफिया, स्कूल माफिया, दवा माफिया, शिक्षा माफिया, प्लाट माफिया, दुकान माफिया, मीडिया माफिया इत्यादि प्राय: हर क्षेत्रों में माफियाओं का राज है। चम्पक के इरादे कि वह क्या कहना चाहता है, उसके पहले ही बाबूलाल ने बोल दिया कि मित्र माफियाराज पनपता है राजनैतिक सरपरस्ती में। समरथ को नहीं दोष गोसाई।

अब माइनिंग डिपार्टमेंट को ही ले लो। यहां तो खनिज अधिनियमों की धज्जियां उड़ती है। अभी हाल ही इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट ने छत्तीसगढ़ में डिप्टी डायरेक्टर जगदलपुर में रहे एस.एस.नाग समेत अन्य पांच अधिकारियों के यहां छापेमारी की थी। खबरों के मुताबिक वहां से बड़ी मात्रा लेन-देन के दस्तावेज जांच के दौरान जब्त किए गए। अब कागजातों को खंगालने व जांच उपरांत ही व्यापक गड़बडिय़ों का आगे पता लगेगा।

खनिज विभाग में अवैध उत्खनन, अवैध परिवहन व रायल्टी की चोरी तो सामान्य बात है। भ्रष्टाचार का सारा खेल तो विभागीय अधिकारियों के वरद्हस्त में ही खेला जाता है। इसे खेल में खिलाड़ी भी खनिज विभाग, रेफरी भी वही और जज की भूमिका में भी वही रहता है। कहने को तो प्रदेश में नई खनिज नीति ‘छत्तीसगढ़ गौण खनिज साधारण रेत’ (उत्खनन एवं व्यवसाय) बनायी गई है। रेत रायल्टी पर्ची के दुरूपयोग को रोकने शासन ने कदम उठाया है। प्रत्येक जिलों में खनिज जांच चौकियों की स्थापना की गई है। कलेक्टर की अध्यक्षता में टास्कफोर्स का गठन भी किया गया है। यूं तो समय-समय पर अवैध परिवहन की संयुक्त जांच की जाती है। अनियमितता पाए जाने पर मामले दर्ज कर दोषी परिवहनकर्ता से समझौता राशि, वसूल कर उसे बख्श दिया जाता है। यह सब भी फिक्स निरीक्षण कोटे रहने के कारण विवशता से किया जाता है। अवैध खनन के अनेक मामलों को तो अनदेखा किया जाता है। अधिक से अधिक राजस्व का लक्ष्य प्राप्त करने तक की मशक्कत रहती है। कई जिलों में तो लक्ष्य भी पूरा नहीं होता। डीएमएफ राशि का आबंटन तो अनेक विभागों में कर दिया जाता है, किन्तु, उसके मानिटरिंग को अनदेखा किया जाता है। जिले में ऐसे कई फर्शी पत्थर खदानें वर्षों पूर्व से स्वीकृत हैं। जहां मौत की खाई से भयंकर खनन किया गया है। यहां खनिज नियमों की तो किसी को परवाह ही नहीं है। होना तो अब तक यह चाहिए था कि ऐसी खदानों का नापजोख कर संबंधित पट्टेदारों से रायल्टी राशि वसूल कर माईन क्लोजर प्लान के अनुसार ऐसी जानलेवा खदानों को क्लोज कर देना चाहिए था। लेकिन करें कौन? संबंधितों को तो केवल चांदी काटने से ही वास्ता है।
पिछले अनेक समय से सत्य ने भी अपनी जीडीपी बढ़ा दी है और किसी अन्य संदर्भ में इसे पहिचान मिली है कि जो समर्थ है, उसके में दोष तो क्या? दोष की परछाई भी नहीं है। इसके विपरीत, ऐसे दोष देखने की जो धृष्टता करें वही सबसे बड़ा दोषी या अपराधी कहा जाता है। ऐसा ‘सिनेरियों’ आज प्रस्थापित हो गया है। इसे ही कहते हैं-‘समरथ को नहीं दोष गोसाई’।

नशे में न सुख, न आनंद, है तो केवल तबाही
कमाई गंदी हो तो सुख शुद्ध हो ही नहीं सकता। यक्ष प्रश्न यह है कि-क्या अपने घर में पहुुंचा रूपया सुख में कन्वर्ट होता है? अगर रूपया कन्वर्टिबल बन गया तो फिर पूछना ही क्या? आदमी का तो बेड़ापार ही हो गया। आदमी को आनंद कहां से मिले? इसकी शोध में कन्टीन्यू लगा रहता है। ठीक कह रहा हूं न डीयर बाबूलाल?

हां चम्पक, यह बात तो ठीक है। परेशानियों, दु:ख-चिन्ता से घिरे लोग ‘ड्रग्स’ के सेवन में आनंद ढूंढते हैं। मैं अपने एक करीबी व्यक्ति रहे, उनकों जानता हूं। उन्होंने केवल दो मर्तबे एल.एस.डी. का सेवन किया था। आज वे जीवित नहीं हैं। मरने के पूर्व उसने अपना अनुभव शेयर किया था। उसने कहा था ड्रग लेने के बाद जब नशा चढ़ता है, तब समय और जिन्दगी एकाकार हो जाते हैं, ऐसा प्रतीत होने लगता है। उस समय आनंद अपनी चरमसीमा पर पहुंचा होता है। किन्तु, नशा उतर जाने के बाद सातवें आसमान से नीचे गिरे जैसी पीड़ा होती है। नतीजतन, फिर से ड्रग सेवन करना अनिवार्य हो जाता है। कहने का ताप्तर्य यह कि नशीली दवाओं का व्यापार नशेडिय़ों की बढ़ती तादात को जाता है। हाल, पुलिस ने सोमनी में नशीली दवाओं की बड़ी खेप पकड़ी। स्वीफ्ट कार में नशीली दवाईयों की तस्करी हो रही थी।

नशीली दवाएं दवा दुकानों में ही खपती हैं। जिन्हें ड्रग्स अधिनियमों के तहत दवाओं को बेचने का लाइसेंस मिला होता है। दवा दुकानों का निरीक्षण भी महज अपना मासिक कोटा पूरा करने तक ही सीमित रहता है। अपमानक स्तर की दवाएं, कफ सीरप का धंधा विभागीय संरक्षण में ही फलाफूला है। प्राय: पुलिस ही नशीले पदार्थों की धरपकड़ करती है। विभागीय अमला तो जानबूझकर अनजान बना रहता है। अनेक प्रतिबंधित दवाएं टेबलेट, कैप्सूल्स, इंजेक्शन, लिक्वीड दवा दुकानों व निजी अस्पतालों में उपलब्ध है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ा भ्रष्ट रैकेट ‘बड़ा पैसा’ बनाने में इतना गलाडूब रहता है कि उसे परवाह ही नहीं रहती कि कईयों की जिन्दगी तबाह होती है तो होती रहे, इससे उसे क्या?

पत्रकार भी एक ‘‘पब्लिक फिगर’’ है,
उसे आलोचना का सामना करना पड़ेगा
वंचितों का हक मारकर सम्पन्नों ने प्लाट्स ले लिए
हंस वाहिनी.. ज्ञान दायिनी,
पत्रकारों को ज्ञान का वरदान दे…
मान दे, सम्मान दे….
चम्पक जब अपने मित्र कलमकार के घर सुबह पहुंचा तो कलमकार मां सरस्वती की आरती कर रहा था। चम्पक भी भावपूर्वक ताली बजाने लगा। कलमकार ने फिर उसे गुड़ का प्रसाद दिया और पूछा-कैसे आना हुआ मित्र? चम्पक बोला कुछ नहीं यार, एक लीगल सरकारी काम था। चक्कर खाकर परेशान हुआ तो सोचा तुम्हारी मदद ले लू। चम्पक ने कलमकार को अपनी समस्या बताई तभी उसने कहा अरे, डोन्टवरी, काम हो जाएगा। इतना तो अफसर हमारा कहना मानते ही हैं। चम्पक ने राहत की सांस ली और बोला पत्रकारों का तो जलवा है। फिर, सरकार मेहरबान हो तो क्या कहना? अब तो तुम्हारा खुद का मकान हो जाएगा।
पत्रकार सिरियस हो गया। बोला- नहीं यार, हाउसिंग सोसायटी का मेम्बर तो हूं लेकिन, पैसा नहीं होने से ले नहीं पाये। पैसों की व्यवस्था हो गई है, लेकिन अब प्लाट नहीं है।

चम्पक बोला- यार विघ्नहर्ता पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा। चम्पक ने यही बात बाबूलाल को बतायी। बाबूलाल का कलमकारों के साथ भी उठना बैठना था। हालात से परिचित था। उसे इस बात का अफसोस हमेशा रहता है कि क्रांतिकारी तेवर व ईमानदारी के पत्रकारिता में दर्शन ही नहीं होते। नए संदर्भों में पत्रकारिता में सुचिता का ढोंग करना भी कठिन है। वसूली, सेटिंग, पब्लिक रिलेशन आदि जैसे काम पत्रकारिता के अंग बन गए हैं।

एक अन्य कलमकार के चेहरे पर भी खुशी नहीं थी। उसने बाबूलाल को अपना दुखड़ा सुनाया। रियायत में जमीन, फिर नि:शुल्क भूमि विकास में सुबे के मुखिया की सद्भावना, दरियादिली ने तो कमाल ही कर दिया। बताते हैं, मुखिया से भूमि विकास हेतु एक करोड़ सत्तर लाख मांगा था, उन्होंने तो एक करोड़ अस्सी लाख दे दिए। याने कि, 10 लाख ज्यादा। आरक्षित गार्डन हेतु जमीन के लिए 7 लाख सी.सी.एफ. ने भी स्वीकृत कर दिए। क्या बात है यार? वंडरफूल, बाबूलाल ने कहा। जरूर ही पत्रकारों ने पिछले जनम में कोई पुण्य किया होगा, तभी लाटरी लग गई। कलमकार बोला-लाटरी खुली है कि वाट लग गई है, यह तो समय ही बतायेगा। तुम्हे तो ‘वंडरफूल’ लग रहा है, जबकि हमें तो ‘ब्लंडर फूल’ लग रहा है। धनिक और कई सम्पत्तियों वाले पत्रकारों ने भी ‘बहती गंगा में हाथ धो लिए हैं’। एक लाख के इन्वेस्टमेंट से लाखों बनते हैं तो फायदा क्यों न उठाए? चलो डीयर, इससे भी इंकार नहीं, किन्तु भूमिहीन आवासहीन वंचित पत्रकारों का हक ऐसे लोगों ने मार दिया, उसका क्या?

बाबूलाल बोला- हर गतिविधि को धंधे में बदलने वाले इस युग में आखिर पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए? व्यक्तिगत व सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुवे दागों से कैसे बचा जाए और इसकी सीमा कितनी हो? जैसे प्रश्न पत्रकारिता को तलाशने हैं। इसके साथ, यह भी सोचना होगा कि क्या कोई पत्रकार उन मान्यताओं या बंधनों से आजाद है, जिसके लिए वह हमेशा दूसरों को कटघरे में खड़ा करता है। व्यवसायीकरण के इस दौर में प्रलोभनों से बचना आसान नहीं है। सो पत्रकारों को अपनी सीमा स्वयं तय करनी है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया के दौर में पत्रकार भी एक ‘पब्लिक फिगर’ बन कर उभरा है, उसे आलोचना का सामना करना ही पड़ेगा, चाहे फिर वो निर्दोष ही क्यों न हो?

संतोषानंद के लिखे गीत की चंद पंक्तियां-
और नहीं बस और नहीं,
गम के प्याले और नहीं
दिल में जगह नहीं बाकी,
रोक नजर अपनी साकी
सपने नहीं यहां तेरे,
अपने नहीं यहां तेरे
सच्चाई का मोल नहीं,
चुप हो जा कुछ बोल नहीं

प्यार का प्रीत चिल्लाएगा
तो अपना गला गंवाएगा
पत्थर रख ले सीने पे,
गौर नहीं है गौर नहीं।
और नहीं बस और नहीं।
– शहरवासी

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