कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में रेप और मर्डर मामले में सीबीआई पॉलीग्राफ टेस्ट का सहारा ले रही है. कोर्ट और सीबीआई की नजर में संदिग्धों ने भी इस मामले में सहमति दे दी है. इस टेस्ट से हासिल क्या होता है. क्या इस टेस्ट के दौरान पुलिस के सामने कोई आरोपी जो कहता है उसकी कोर्ट में कोई अहमियत होती है या नहीं. अगर नहीं होता है तो फिर इसका हासिल क्या होता है. क्यों सीबीआई अपनी जांच के दौरान इसका प्रयोग करती है.
देश में जांच को जब से वैज्ञानिक रूप देने की कोशिशें शुरु हुई तो सबसे सीबीआई और कुछ राज्यों की पुलिस पहले ब्रेनमैपिंग, नार्को और पॉलीग्राफी टेस्ट कराना शुरु किया. इस जांच के लिए सबसे अहम है कि मजिस्ट्रेट या जज से इसकी अनुमति ली जाती है. मजिस्ट्रेट के सामने ही आरोपी इस पर सहमति देता है. हालांकि उसके पास असहमत होने का अधिकार भी होता है. लेकिन गुनाह का आरोपी होने के कारण वे ज्यादातर मामलों में खुद को बेदाग साबित करने के लिए जांच की सहमति दे देता है. अगर आरोपी सहमति न दे तो उसकी ये जांच नहीं कराई जा सकतीं
पॉलीग्राफी, ब्रेनमैपिंग और नार्को टेस्ट के अंतर
दोनों मिलते जुलते से टेस्ट हैं. इन दोनों के बीच बहुत थोड़ा सा अंतर होता है. नॉर्को टेस्ट में व्यक्ति को कुछ ऐसे मेडिकल दवाएं दी जाती है जिससे वो चाह कर बहुत कुछ छुपाने में लाचार हो जाता है. जबकि पॉलीग्राफी में व्यक्ति के वाइटल्स जांचने वाली मशीनें लगा कर उससे सवाल पूछे जाते हैं. सवालों की फेहरिश्त पहले ही सीबीआई के विशेषज्ञ तैयार रखते हैं. पॉलीग्राफी के दौरान अगर कोई व्यक्ति किसी बात पर पर्देदारी करने की कोशिश करता है या झूठ बोल कर सच को छुपाने की कोशिश करता है तो उसके ब्लड प्रेशर, पेट में घूमने वाले द्रव्य की गति, दिल की धड़कनें यहां तक कि सांसों के तारतम्य में अंतर आ जाता है. इससे जांच करने वालों को पता चल जाता है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है. दोनों में समानता ये है कि इन सबका विश्लेषण करने के लिए मेडिकल स्पेशलिस्ट भी उनके साथ होता है. इसी तरह का एक टेस्ट ब्रेन मैपिंग भी होता है. उसके जरिए भी आरोपी के झूठ बोलने या सच छुपाने का पता लगाया जाता है.