14 सितंबर को हिन्दी दिवस है… हमारी हिन्दी भाषा नित नवीन प्रगति के परचम लहरा रही है, सफलता के सोपान रच रही है, सुयश के प्रतिमान गढ़ रही है लेकिन इन बीच अवरोधों का सिलसिला भी जारी है। इस अवरोधों में सबसे पहला नाम आ रहा है वेब सीरीज का, हमने पूर्व भाग में संवेदनशील कथाकारों से चर्चा की, उसी कड़ी में यह दूसरा भाग प्रस्तुत है…वेब सीरीज भ्रष्ट कर रही हैं बच्चों की भाषा, आइए जानते हैं क्या सोचती हैं प्रबुद्ध रचनाकार इस संबंध में…
गरिमा संजय दुबे/ कथाकार :वेब सीरीज़ एक नए तरह के मनोरंजन के साधन के रूप में सामने आई है। कोरोना काल में जब सबकुछ बंद था तो इसने लोगों के खालीपन को भरा, किंतु अपराध, हिंसा, उन्मुक्त यौनाचार, गाली गलौज अनिवार्य तत्व की तरह इसमें शामिल रहे। जो आंखों से देखा जाए व कानों से सुना जाए वह भी एक किस्म का भोजन होता है। भोजन देह को पुष्ट करता है, दृश्य व ध्वनियां मन और आत्मा को। जिस तरह दूषित भोजन से देख में रोग आ जाता है वैसे ही दूषित दृश्य व ध्वनियां भी हमारे मानस को रोगी बना देती हैं।
बात यदि भाषा की की जाए तो भाषा सीखने में सुनने का महत्व अधिक है। व्यक्ति पढ़ना बाद में सीखता है बोलना पहले, क्योंकि सुनकर भाषा सीखी जा सकती है। यदि गलत सुना है तो गलत बोलेंगें ही, तो निश्चित रूप से वेब सीरीज़ में प्रयुक्त होने वाली भाषा लगातार सुनने से हमारी भाषा में विकार आना स्वाभाविक है।
हिन्दी और अंग्रेजी गालियों अपशब्दों के प्रयोग ने बच्चों और युवाओं की पहले से बिगड़ी हुई भाषा को और बिगाड़ा ही है। भाषा के स्तर को सुधारने के लिए निरंतर अभ्यास करना होता है, जिसमें लिखना, पढ़ना, बोलना, सुनना आता है किंतु हम क्या सुन रहे हैं, क्या पढ़ रहे हैं, क्या देख रहे हैं इसका विवेक भी आवश्यक है।
डॉ. दीपा मनीष व्यास/ कथाकार : सर्वप्रथम हम सबको हिन्दी दिवस की बधाई। जैसे और त्योहार, पर्व मनाते हैं वैसे हिन्दी दिवस भी मनाना ही चाहिए क्योंकि जिस तरह का परिदृश्य हो गया है उसमें ये मनाना अनिवार्य भी हो गया है।
हिन्दी भाषा ने अपने विकास के कई पड़ाव पार किए। कई परिवर्तन आए हैं वाक्य संरचना में, शब्दों में, अभिव्यक्ति में ,पर हम आज जो परिवर्तन देख रहे हैं वो दरअसल परिवर्तन नहीं पतन देख रहे हैं। मेरा नज़रिया सदा दोनों पहलुओं को देखने और समझने का रहा है कभी कुछ अच्छा भी सामने आता है तो कहीं बुरा भी।
तकनीकी युग में आज हर घर में वो सभी साधन उपलब्ध हैं जिनसे हम कुछ नया सीखते हैं, नई जानकारी प्राप्त करते हैं।आज की पीढ़ी विस्तार में अध्ययन करने के स्थान पर छोटा रास्ता तय कर सब सीखना चाहती है। अब वो दौर गया सा लगता है जब तीन घंटे की फ़िल्म देख खुश होते थे। अब ज़माना वेब सीरिज का आ गया।
सस्पेंस, थ्रिलर और रोमांच से भरपूर। बहुत अच्छे विषयों को लेकर ये सीरीज बनाई जाती है पर कुछ वेब सीरीज की भाषा आहत कर देती है। द्विअर्थी संवाद, अपशब्दों का प्रयोग तो आम है इनमें। आज की पीढ़ी इस भाषा को सहर्ष स्वीकार करती है ये चिंता का विषय है।
हिन्दी भाषा की खासियत है कि वह हर वर्ग, हर उम्र, हर परिवेश के साथ सामंजस्य बनाकर चलती है। इसमें विनम्रता सूचक शब्दों का प्रयोग किया जाता है, पर क्या हम ये सुगठित वाक्य संरचना या सुहावने शब्द वेब सीरीज में पाते हैं? नहीं न। हिंसा को बढ़ावा देने वाले, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग इन नवांकुर, भोले बच्चों को जिस दिशा में ले जा रहा है यह विचारणीय है। आज अधिकांश बच्चे उस स्तरहीन भाषा का प्रयोग करते हैं और आश्चर्य होता है जब उनके माता-पिता उनकी इस भाषा को सुन आनंदित होते हैं, स्वयं को आधुनिक कहते हैं। वेब सीरीज की भाषा को कुछ नियमों में बांधने की आवश्यकता है।
अंजू निगम, कथाकार, देहरादून : वेब सीरीज ने बच्चों पर कितना असर डाला है? इस मुद्दे पर बोलने से पहले दो बातें प्रमुखता से रखना चाहूंगी। पहला, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अच्छा भी और बुरा भी। तो मैं दोनों पक्षों को समेटना चाहूंगी। दूसरा, हर बात अगर अति में हो तो परिणाम दुष्कर ही निकलते हैं।
पहले इस बात को लेते हैं कि बच्चों में वेब सीरीज के प्रति रुझान आखिर क्यों कर पनपता है। कारण कई हो सकते हैं। मुख्यतः सामाजिक परिवेश, सोच का बदला रुप, पढ़ाई का बढ़ता बोझ, बच्चों का सिमटता बचपन, मां-बाप की व्यस्त जीवनशैली ,एकल परिवार।
बच्चें तो गीली मिट्टी की तरह होते हैं। उन्हें जिस आकार में ढालेंगे, उसी में पल्लवित होंगे। उनकी ऊर्जा को सही आकार नहीं दिया गया तो परिणाम विपरीत दिशा में जा सकते हैं। बच्चा अपना समय कैसे खर्च कर रहा है? उसका रुझान कहां है? यह देखना अभिभावक का कर्तव्य है। मगर मां-बाप के पास क्या इतना वक्त है?
13-14 की उम्र नाजुक होती है। शारीरिक बदलाव आने शुरु हो जाते हैं। ऐसे में मां-बाप का भावनात्मक संरक्षण निहायत आवश्यक हो जाता है। ऐसा न होने पर जाहिर तौर पर दूसरी राह पकड़ने लगते हैं। वे सोशल मीडिया की ओर आकर्षित होते हैं जिसकी उपलब्धता आसान है। खासकर वेब सीरीज।
इंटरनेट डाटा के जरिये इन वेब सीरीज को आसानी से डाउनलोड कर सकते हैं। इस किशोर वय में वेबसीरीज का गहरा असर बच्चों के दिमाग पर पड़ता है। इन सीरीज के पात्रों को वे अपने जीवन में ढालने की कोशिश करने लगते हैं, अक्सर घातक नतीजों के साथ।
बच्चों पर इन वेबसीरीज का एडिक्शन होने लगता है। उन पर मानसिक बदलाव दृष्टिगोचर होने लगता है। चिड़चिड़ापन, मानसिक तनाव, भुख न लगने की शिकायत। सबसे बड़ा असर भाषा की अभद्रता के रुप में सामने आ रहा है। कुछ लोकप्रिय वेब सीरीज अभद्र भाषा को धड़ल्ले से परोस रही हैं। अगर कोई टोक है ही नहीं तो क्या संदेश जाता है? यही न कि जो वे देख रहे है वह सही है। क्या मनोरंजन का एक यही नकारात्मक तरीका रह गया है? इसकी जवाबदेही लेने वाला कौन है?
चुकिं मैंने पहले ही यह इंगित किया कि हर परिस्थिति, हर कथन के दो पहलू होते हैं।
हां, मानती हूं स्थिति विकट है पर इस पर लगाम लगाई जा सकती है। बच्चों को अपना समय दें। बच्चों में यह प्रवृति होती है कि वह अपने बड़ों के कदमों पर ही चलने की कोशिश करते हैं। जो बात गलत है वह गलत है। उसे उम्र का जाम़ा मत पहनाएं। बच्चों को ज्ञानवर्धक वेब सीरीज देखने के लिए प्रोत्साहित करें। खुद भी उसमें अपना उत्साह दिखाएं। मनोरंजन के नाम पर आपत्तिजनक सामग्री देखने की छुट न दें। स्वस्थ संस्कारों का रास्ता भले ही कठिन हो पर बस जरूरत उस पर चलने की है।
डॉ.अंजना चक्रपाणि मिश्र/ कथाकार : इसमें कोई दो राय नहीं है कि वेब सीरीज़ के माध्यम से भारतीय ऑडियंस को एक ऐसा मंच मिला है जहां पर काफ़ी अच्छी कथाएं भी हैं जो सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करती हैं और लीक से हटकर बनी हैं। उन्हें स्थान और सराहना मिली है।
किन्तु इसी का दुःखद पहलू यह है कि वेब सीरीज़ में बच्चों से ऐसी भाषा का प्रयोग कराया जा रहा है जो ज़बरन ठूंसी हुई सी लगती हैं जो सीरीज़ के कंटेंट के लिहाज से भी गैरज़रूरी लगती हैं। सामान्यतया परिवारों में ऐसे गाली-गलौज देखने-सुनने को भी नहीं मिलती जबकि उसमें ऐसा जताया जाता है कि ये गालियां बच्चों के जीवन का हिस्सा हैं और उसे महिमा मंडित करके परोसा जा रहा है।
यदि एक दो प्रतिशत परिवारों में,कॉलेजों में या उनके बिज़नेस के सिलसिले में गालियों का प्रयोग होता भी है तो उसकी इतनी बहुतायत नहीं है जितना वेब सीरीज़ ने इनको ग्लैमर के साथ परोस कर रख दिया है। निश्चित तौर पर निरंतर ऐसी भाषा को सुनने से बच्चों की भाषा का स्तर बिगड़ेगा। यह बहुत चिंतनीय और दुःखद पहलू है।