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हाईटेक हुआ मोहारा वाटर ट्रीटमेंट प्लांट

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राजनांदगांव(दावा)। अमृत मिशन योजना के माध्यम से नगर निगम द्वारा मोहारा में शिवनाथ नदी के पास करीब दो करोड़ की लागत से बनाया गया जल शोधन संयंत्र यानि वाटर ट्रीटमेंट प्लांट अब पूरी तरह हाइटेक हो चुका है। इस प्लांट में अत्याधुनिक उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है, जिससे इस संयंत्र के कर्मियों को बैठे बिठाए ही पता चल जाता है कि शहर के किस पानी टंकी में जलभराव की क्या स्थिति है? खास बात यह है कि इस प्लांट को वहां से बाहर अथवा काफी दूर रहकर भी आपरेट किया जा सकता है।

नगर निगम अधिकारियों के साथ पत्रकारों की टीम ने शनिवार को वाटर ट्रीटमेंट प्लांट मोहारा का दौरा किया और जानने की कोशिश की कि शहर के लोगों के घरों में पहुंच रहे पानी को शुद्ध पीने योग्य बनाने के लिए क्या प्रक्रिया अपनाई जाती है? मोहारा वाटर प्लांट में शिवनाथ नदी का पानी स्टोर किया जाता है। स्टोर किए गए पानी को कुछ दूर पाइप लाइन के जरिए फिल्टर होने भेजा जाता है। टीम उस जगह भी पहुंची, जहां पानी को साफ करने की सबसे पहली प्रक्रिया शुरू होती है। यहां चार बड़े पंप लगे हैं, जिसके माध्यम से एक हिस्से में नदी के पानी को नीचे झरने की तरह बहाया जाता है, ताकि उसे ऑक्सीजन मिल सके, वहीं दूसरे हिस्से में उस पानी में मौजूद बैक्टीरिया को खत्म करने के लिए क्लोरीन का इस्तेमाल किया जाता है।

पानी को कई बार किया जाता है टेस्ट
पानी की शुद्धता की जांच के लिए प्लांट परिसर में एक प्रयोगशाला भी बनाई गई है। लैब में पानी टेस्ट करने से नदी के पानी को रेत की मदद से फिल्टर किया जाता है और यहां से पानी के सैंपल को टेस्ट के लिए लैब में भेजा जाता है। मोहारा वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के टेक्रीशियन साहू ने बताया कि प्लांट में पानी को पहले स्टेज से अंतिम स्टेज तक कई बार टेस्ट किया जाता है। हर एक-डेढ़ घंटे में पानी की गुणवत्ता को लैब में टेस्ट किया जाता है। इस दौरान 28 से 30 मानकों पर खरा उतरने के बाद ही राजनांदगांव की जनता के बीच ट्रीटमेंट प्लांट का पानी भेजा जाता है। चार स्टेज में पानी को साफ किया जाता है। इस प्लांट से निकलने वाली पानी की हर एक बूंद को टेस्ट किया जाता है कि वह पीने योग्य है या नहीं। राजनांदगांव की पूरी आबादी को इसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से पानी सप्लाई होता है, जिनमें शहर के आउटर वार्ड भी शामिल हैं। पूरे संयंत्र की गतिविधियों पर नजर रखने और उसके सुचारू संचालन के लिए एक कंट्रोल रूम भी बनाया गया है, जहां सीसीटीवी के माध्यम से नजर रखी जाती है। इतना ही नहीं एक और टीवी में यह डिस्प्ले होते रहता है कि शहर के किस वार्ड की टंकी में कितना जलभराव है और कितनी कमी है? टीवी डिस्प्ले से शहर में बिछाई गई पाइप लाइन और पानी टंकियों को भी मैप से दिखाया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि वाटर फिल्टर का काम पूर्ण होने पर अथवा संबंधित टंकियों में क्षमता अनुसार पानी भरने के बाद सिस्टम आटोमेटिक काम करना बंद हो जाता है।

मोहड़ में करोड़ों की लागत से सिवरेज प्लांट का निर्माण
नगर निगम अब शहर के विभिन्न स्रोतों से होकर पहले शिवनाथ नदी तक पहुंच रहे गंदे पानी का भी सदुपयोग करने जा रहा है। अब नालों से बहने वाले शहर के गंदे पानी को सीधे प्लांट में ले जाने के लिए पानी के बहाव को डायवर्ट कर मोहड़ ले जाया जा रहा है, जहां इसका उपयोग प्लांट में जैविक खाद बनाने में किया जाएगा और अवशेष के रूप में बचे गंदे पानी को किसानों को खेतों की सिचाई के लिए दिया जाएगा। इसके लिए ग्राम मोहड़ में करोड़ों की लागत से एक प्लांट का निर्माण प्रगति पर है। इस प्लांट का करीब 70 फीसदी काम हो चुका है और आगामी मार्च 2021 तक इसके शुरू होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। इस सिवरेज वाटर प्लांट में प्रतिदिन 50 एमएलडी पानी को यूरोपियन स्टैंडर्ड के अनुरूप शुद्ध किया जाएगा। इसमें से 25 एमएलडी पानी 10 बीओडी (बायो केमिकल ऑक्सीजन) तक साफ किया जाएगा। इस पानी को पास से गुजरने वाले नाले के माध्यम से नदी में छोड़ा जाएगा। जबकि भविष्य में जरूरत पडऩे पर शेष एमएलडी पानी को और भी अधिक शुद्ध कर पीने व नहाने योग्य बनाया जा सकेगा। यह प्लांट शहर की आबादी और जरूरत को देखते हुए आगामी 20 वर्षों के लिए बनाया जा रहा है।

आशा नगर में कुष्ठ रोगियों के परिवारों के अच्छे दिन
एक जमाने में हेय की दृष्टि से देखे जाने वाले आशा नगर में निवासरत कुष्ठ रोगियों के परिवारों के भी अब अच्छे दिन आ गए हैं। यह सब संभव हुआ है नगर निगम द्वारा सरकारी योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन से। दरअसल एक वह भी दौर था, जब लोग कुष्ठ रोगियों को हेय की नजर से देखते थे। उनसे छूआछूत की भावना रखते थे। कोई उनके पास जाना, बात करना और किसी तरह का लेनदेन करना पसंद नहीं करते थे। इन तमाम बातों को जिले के तत्कालीन कलेक्टर रहे हर्षमंदर ने बहुत करीब से देखा और कुष्ठ रोगियों के प्रति लोगों के नजरिए में बदलाव की बात सोचकर तमाम कुष्ठ रोगियों को यहां लाकर बसाया गया। शुरूआती में इन परिवारों को कच्चे मकान और झोपडिय़ों में ही रहकर गुजर बसर करना पड़ा। किंतु अब सरकार की योजनाओं का लाभ आशा नगर वासियों को मिलने लगा है।

नगर निगम के अधिकारियों ने पत्रकारों को बताया कि शुरूआत में आशा नगर में कुष्ठ रोगियों को बसाया गया था, तब उनकी आर्थिक स्थित काफी कमजोर थी। अब उनकी संतानों मेें कुष्ठ होने से जैसी कोई बात नहीं है। सरकार की योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन से समय बीतने के साथ ही उन्हें तमाम जरूरी सुविधाएं मिलने लगी हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत आशा नगर में निवासरत सभी 61 परिवारों को अब पक्का मकान बनाकर दिया गया है। साथ ही यहां के निवासियों को आजीविका के साधन व रोजगार हेतु काम्प्लेक्स बनाकर देने की योजना है ताकि बस्ती में ही अपने कारोबार कर सकें। इसके साथ ही गार्डन भी बनाया गया है। बस्ती के अंदर सड़कों का डामरीकरण किया जाना प्रस्तावित है।

रेवाडीह वार्ड में महिलाएं गोबर से बना रही लकडिय़ां, अंतिम संस्कार में हो रहा उपयोग
प्रदेश की भूपेश सरकार द्वारा गोधन न्याय योजना शुरू किए जाने के बाद गोबर अब काफी उपयोगी और कारगर साबित होने लगा है। नगर निगम के माध्यम से रेवाडीह वार्ड स्थित खाली पड़े बस टर्मिनल परिसर में गोबर से जैविक खाद बनाने के साथ ही गोबर से लकडिय़ां बनाने का काम भी शुरू किया गया है। इसके साथ ही यहां गोबर से जैविक खाद उत्पादन का भी कार्य किया जा रहा है। पत्रकारों के दल को केन्द्र प्रभारी ने बताया कि यहां गोबर से बनने वाली लकडिय़ों का इस्तेमाल लोगों के अंतिम संस्कार करने में आ रहा है। कोविड-19 के दौरान मृत लोगों की चिता जलाने के लिए लकड़ी की कमी होती है और पेड़-पौधों की लकडिय़ां आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती। अत: अंतिम संस्कार हेतु आधी मात्रा में पेड़ों की लकडिय़ां और आधी मात्रा में गोबर से बनी लकडिय़ां उपयोग में लायी जा रही हैं। कोरोना काल में इस केन्द्र द्वारा कोविड-19 से मृत लोगों के अंतिम संस्कार हेतु आज की स्थिति में 600 क्विंटल गोबर से निर्मित लकडिय़ों की सप्लाई की जा चुकी है।

मशीन के द्वारा गोबर से ऐसे बनाई जाती है लकडिय़ां
केन्द्र प्रभारी द्वारा जानकारी दी गई कि गोबर की लकड़ी बनाने के लिए सबसे आवश्यक कच्चा माल है गोबर, जो गाय के माध्यम से प्राप्त होता है। इसके लिए सूखा भूसा एवं घास भी चाहिए होगा। यह सभी कच्चा माल बहुत ही आसानी से गांवों से प्राप्त हो जाता है। इस तरह आवश्यक सामग्री के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। गोबर की लकड़ी बनाने के लिए स्वचालित एक मशीनरी की आवश्यकता होती है, जो 45 हजार रूपये से लेकर एक लाख रूपये तक के बीच की कीमत में उपलब्ध हो जाती है। इस मशीन का इस्तेमाल करके एक किग्रा. गोबर की लकड़ी बहुत ही कम समय पर आसानी से बनकर तैयार हो जाती है। गोबर की लकड़ी बनाने के लिए मशीन में गोबर, सूखा हुआ भूसा एवं घास को डालतें हैं। फिर स्वचालित मशीन को ऑन कर दिया जाता हैं, जिससे गोबर की लकड़ी आसानी से बन कर तैयार हो जाती है। इसके बाद इसे धूप में भी सुखाया है। इसके अच्छी तरह से सूखने के बाद यह बाजार में बेचने योग्य बन जाती है। बताया जाता है कि गोबर की लकड़ी बनाने के व्यवसाय की मांग देशों में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी बहुत अधिक होती है। दरअसल पेड़ों की लकड़ी का इस्तेमाल करना एक तरीके से पर्यावरण का नुकसान करना ही होता है, इसलिए पेड़ों को काटना गैर कानूनी माना जाता है। ऐसे में कई जगहों पर जैसे बर्फीले क्षेत्रों आग जलाने के लिए इसकी मांग बहुत अधिक होती है। साथ ही देश में धार्मिक अनुष्ठान जैसे पूजा पाठ, हवन, अंतिम संस्कार एवं यज्ञ में अग्नि प्रज्वलित करने आदि में भी गोबर से बनी इन लकडिय़ों के अलावा गोबर के उपले यानि कंडे का इस्तेमाल भी किया जाता हैं, इसलिए उनमें भी इसकी मांग बहुत अधिक होती है। इन सभी के अलावा गोबर की लकड़ी ईट के भट्टे बनाने में भी उपयोग में लायी जाती है।

आवास योजना से साकार हुआ आशियाने का सपना
प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना से शहर के रेवाडीह वार्ड में 150 आवासों में ऐसे लोगों को बसाय गया है, जिनके स्वयं के घर नहीं थे। इन आवासों का निर्माण नगर निगम के माध्यम से 729.00 लाख की लागत से वर्ष 2019 में कराया गया है। पत्रकारों के दल को नगर निगम के अधिकारियों ने बताया कि प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना के तहत शहर के डेढ़ सौ ऐसे परिवारों को यहां बसाया गया है, जो शहर के विभिन्न स्थानों पर बिना पट्टा अथवा बगैर मालिकाना हक वाली जगहों पर वर्षों से निवासरत थे, किंतु उनके स्वयं के मकान नहीं थे। ऐसे लोगों को समय-समय पर तमाम तरह की परेशानियों से जूझना भी पड़ता था। मकान का पट्टा नहीं होने से उन्हें नगर निगम से मिलने वाली सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ता था। इन लोगों की परेशानियों को ध्यान में रखते हुए 75000 रूपए शुल्क लेकर 30 सालों के लिए पट्टा देकर व्यवस्थापित किया गया है। यहां निवासरत लोगों ने बताया कि उन्हें रहने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं है। नगर निगम द्वारा पानी, बिजली की सुविधा मुहैया कराई गई है। गंदे पानी की निकासी के लिए नालियां बनाई गई है। साथ ही आवागमन के लिए कांक्रीट रोड का भी निर्माण कराया गया है। इस तरह सरकार की इस महत्वपूर्ण योजना के क्रियान्वयन से 150 परिवारों को अब खुद का आशियाना नसीब हुआ है।

गंदे पाानी को साफ करने की क्या है प्रक्रिया?
प्राथमिक उपचार के दौरान कुछ भौतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से जल में उपस्थित अशुद्धि को दूर किया जाता है। इसमें यांत्रिक प्रक्रिया के दौरान दूषित जल को एक स्क्रीन या जाली से प्रवाहित किया जाता है, जिससे कुछ बड़े आकार के निलम्बित पदार्थ जैसे- बड़े आकार के रेशे, पत्थर एवं अन्य निलम्बित कण पृथक हो जाते हैं। इस तरह छनन की प्रक्रिया से लगभग 60 प्रतिशत निलम्बित कण पृथक हो जाते हैं।
छनन के उपरान्त दूषित जल को एक बड़े टैंक में सेडीमेंटेशन के लिये रखा जाता है, जिसमें लगभग पांच मीटर गहरे बड़े टैंक में दूषित जल को स्थिर छोड़ दिया जाता है। दूषित जल में उपस्थित भारी कण गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे बैठ जाते हैं तथा ऊपर का अपेक्षाकृत साफ जल आगे उपचार हेतु ले जाया जाता है। इस टैंक में दूषित जल को कम से कम दो से छह घंटे तक रखा जाता है। दूषित जल में उपस्थित सूक्ष्म कणों अथवा कोलायडल कणों को पृथक करने हेतु इस जल में कुछ कोगुलेंट भी मिलाया जाता है, ताकि अशुद्धियां आसानी से पृथक हो जाएं। ऐसा दूषित जल जिसमें निलम्बित कणों का घनत्व जल से कम या जल के लगभग बराबर होता है, उन्हें सेडीमेंटेशन के माध्यम से पृथक नहीं किया जा सकता, इस हेतु फ्लोटेशन की प्रक्रिया अपनायी जाती है। इस प्रक्रिया में दूषित जल को एयरेट कर अथवा अच्छी तरह हिलाकर कुछ देर के लिये छोड़ दिया जाता है, जिससे ठोस कण जल की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं, जहां से इन्हें पृथक कर लिया जाता है। कार्बनिक पदार्थ युक्त औद्योगिक दूषित जल के उपचार हेतु जल का द्वितीयक उपचार किया जाता है। इसमें जैविक रूप से अपघटित होने वाले कार्बनिक पदार्थों का सूक्ष्म जीवाणु द्वारा उपचार किया जाता है। इस तरह उपचार करने से लगभग 90 प्रतिशत कार्बनिक यौगिक ऑक्सीकरण के माध्यम से पृथक कर लिये जाते हैं। अपघटित पदार्थ द्वितीय सेटलिंग टैंक में नीचे बैठ जाते हैं। नीचे बैठे सेडीमेंट में बड़ी मात्रा में सूक्ष्म जीव होते हैं। फलत: इस सेडीमेंट का कुछ भाग पुन: द्वितीयक उपचार में काम में लाया जाता है। जैविक उपचार हेतु ऑक्सी एवं अनॉक्सी जैविक उपचार मुख्यत: प्रचलन में है।

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