अरे भंग का रंग जमा हो चकाचक
फिर लो पान चबाय, अरे ऐसा झटका लगे जिया पे
पुनर जन्म होई जाए,
ओ खई के पान बनारस वाला….
खुलि जाये बंद अकल का ताला
फिर तो अईसा करे धमाल
सीधी कर दे सबकी चाल
ओ छोरा गंगा किनारे वाला…..
छैल छबीली, लाल, हरा, पीला गुलाल उड़ाती, नगाड़ों की थाप सुनाती होली की सुनाई दे रही पदचाय चम्पक लाल को मस्ती में डूबो देती है। जब वह थोड़ी भंग गटक, पान चबा किशोर दा का ये गाना आता हुआ आता दिखाई दिया तब बाबूलाल प्रसन्न हो गया। वह सोचने लगा इतनी असहनीय और बेशुमार महंगाई में भी आदमी हंस सकता है और चैन की नींद सो सकता है। जो यह साबित करता है कि आदमी कितने हद तक ‘महंगाई प्रूफ’ हो सकता है।
डीयर बाबूलाल, मैं जानता हूँ तुम क्या सोच रहे हो। अरे यार भंग की मस्ती का ‘‘महंगाई’’ से क्या वास्ता? त्रासदियों को भूलने के लिए ही तो नशा किया जाता है। ठीक कह रहे हो चम्पक, बाबूलाल ने कहा-अधर्म का विनाश करने और धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए भगवान जिस प्रकार युगे-युगे नए अवतार धारण करते रहते हैं। उसी प्रकार, राजनीति भी सस्ते-वाजिब जमाने का विनाश करने और ‘महंगाई’ की पुन: स्थापना करने प्रत्येक चुनावों में नया आकार धारण करते रहती है।
दशकों पहले फल्ली तेल के दाम 5 से 10 रूपए भी बढ़ जाते थे, तब जनता सत्ताधीशों के सामने बांहे चढ़ाकर उसका तेल निकाल देती थी। उस समय की जनता सहनशील नहीं थी, जितनी सहनशील आज की जनता है। उस समय शायद इतनी बेरोजगारी भी नहीं होगी, जितनी आज है। आज तो लोग फालतू आंदोलनों के पीछे समय खराब कर देते हैं। देश में इतनी कुशलता से महंगाई सुपरफास्ट स्पीड से बढ़ रही है। तब लोग इतने निश्ंिचत, इतने स्वस्थ और इतने स्थितप्रज्ञ रह रहे हैं। चम्पक-एब्सोलुटी राइट बाबूलाल। आज के लोग श्रद्धालु और भक्ती में लीन हैं। आज तो एक भी आदमी के पास इतना फालतू समय नहीं है कि महंगाई के सामने लडऩे अपना जरूरी/ गैरजरूरी कामधंधा छोडक़र बाहर निकले। जनता की हताशा की फलश्रुति यह कि ‘महंगाई किस चीडिय़ा का नाम है’? इसको भी भूल गई है।
शहरवासी-मित्रों चम्पक-बाबूलाल, महंगाई और गरीबी का हस्तमेलाप कर अधिकांश राजनीतिज्ञों ने ‘‘गरीबी’’ नाम के शस्त्र का जितनी मात्रा में उपयोग किया है, उसका दस प्रतिशत भी महंगाई नाम के शस्त्र का उपयोग नहीं किया। झूठा-सच्चा, छोटा-मोटा प्रत्येक नेता ‘‘गरीबी हटाओ’’ के नारे, वचन, भाषण अचूक देता है। किन्तु, आजादी के बाद आज तक किसी ने भी ‘‘महंगाई हटाने’’ कर्णप्रिय नारे, मनलुभावने वचन-भाषण नहीं दिए हैं। एक पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई इसमें अपवाद हैं। उनका केवल ढाई साल का कार्यकाल स्वर्णीम था। ‘‘राशनिंग’’ पूरी बंद थी। शक्कर, खाद्यान्न, तेल आदि सस्ते दर पर जनता को उपलब्ध थे।
बहरहार डीयर, आज महंगाई से जनता त्राहिमाम पुकार रही है कि ‘‘महंगाई हटाओ’’। उधर, राजनीतिज्ञ कह रहे हैं कि हम गरीबी हटायेंगे।
एक पत्रकार ने आफ द रिकार्ड एक करीबी नेता से पूछा- आप लोग जब-तब ‘‘गरीबी’’ हटाने की बात करते हैं, किन्तु ‘‘महंगाई’’ हटाने की बात क्यों नहीं करते? तब उस खास नेता ने इरीटेट होकर किन्तु सीरियसली कहा कि- महंगाई हटाने से हमें क्या मिलेगा? गरीबी हटाने के नाम पर तो अलग-अलग योजनाओं के नाम पर आयोजन, समारोह और अभियान शुरू करते हैं। जिसके कारण ही अधिकांशत: गरीबी दूर हो जाती है।
अब मित्र, किसकी गरीबी दूर होती है? यह सवाल इसलिए नहीं पूछा कि यह उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था।
अच्छा हुआ, पेट्रोल-डीजल-गैस के दाम बढ़े! आओ चले वापस प्रकृति की ओर…
रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल के दामों में बेतहाशा वृद्धि को लेकर क्या कहना है बाबूलाल? चम्पक ने पूछा। बाबूलाल ने स्माईल फेकते हुवे कहा कि सरकार ने जनता का गाल ‘‘लाल’’ इतनी कुशलता से किया है कि जनता किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई है। कहा जाता है कि जनाधार हासिल करने के बाद कोई भी विरोध-निराधार बन जाता है।
रसोई गैस या पेट्रोल-डीजल के दामों में बार बार जो घट-बढ़ होती है, वह यह साबित करती है कि, बाहर से अचेत लग रहे ये तीनों पदार्थ, वास्तव में भीतर से कितने जीवंत है। ये न केवल जीवंत है अपितु हमें भी जीवंत रखते है। प्रकृति भी परिवर्तनशील है। अब जनता दामों को स्थिर करने की बात करती है तो यह परिवर्तन के नियमों के विरूद्ध है।
कई लोग सरकार को सलाह देते हैं कि गैस, डीजल-पेट्रोल की कीमतों को स्थिर करें। खास कर त्यौहारों में शिकायतें होती हैं कि हमने जिनको चुन कर भेजा है, वे सरकार बनाते हैं और वे चाहें तो चुटकी बजाकर कीमतों को कम कर सकते हैं। फिर भी वे क्यों नहीं करते?
बाबूलाल-मित्र इस बाबत मेरा इतना ही कहना है कि सरकार को जनता की सेहत की चिन्ता है, उनके फिटनेस की चिन्ता है। सरकार भले ही आपको सीधे तौर पर यह न कहे कि-भाइयों और बहनों, आपको स्वस्थ रहना है और अपनी फिटनेस को लेकर आप सचेत है तो सुबह 10-12 किलोमीटर वाकिंग और शाम को पुन: 10-12 किलोमीटर चलें। अच्छे स्वास्थ्य के लिए इससे अच्छा अन्य कोई व्यायाम नहीं है, अन्य कोई आयाम नहीं है। देशवासियों, अंतिम सांस तक निरोगी और स्वस्थ रहने के लिए वाहनों का उपयोग कम करें। संभव हो तो उसका उपयोग ही बंद कर दें। जरूरत ही पड़े तो साइकिल चलाएं।
दूसरी बात, रसोई गैस के दामों में वृद्धि बाबत तो मित्रों गैस का उपयोग कम या बंद करके हमें वापस सिगड़ी या चुल्हा का उपयोग शुरू कर देना चाहिए। स्टो का उपयोग भी मत करना क्यों कि मिट्टीतेल भी आखिरी पेट्रोल-डीजल के ही परिवार का है।
शहरवासी-डीजल, पेट्रोल, गैस की मूल्य वृद्धि ने हमें सुनहरा अवसर प्रदान किया है-प्रकृति के अनुकूल होने का, पर्यावरण बचाने का। माड्युलर किचन के प्लेटफार्म पर खड़े-खड़े खाना बनाने के बदले वापस जमीन पर नीचे बैठकर चूल्हा फुकने से दम और सांस की बीमारी भी चलते बनेगी। कहते हैं, मिट्टी के चुल्हे पर बनने वाली रसोई केवल स्वादिष्ट ही नहीं, स्वास्थ्यप्रद भी होती है।
घटिया राजनीति व भ्रष्टाचार से जनता का जीवन दुभर
देश की जनता खरीद-फरोख्त, शाम-दाम आदि की घटिया राजनीति से बेहद हलाकान हैं। जनता को समझ में आ गया है कि उस के घर का चुल्हा या व्यापार-धंधा, नोटबंदी-जीएसटी या फिर ट्रिपल तलाक, धारा-370, लव जिहाद या आइडियोलाजी लिए भाषणों से नहीं चलने वाला और न ही मंदिर-मस्जिद की राजनीति करने वालों का साथ दे कर चलने वाला है। जनता यह भी समझ चुकी है कि बढ़े दाम कम होने वाले नहीं है याने कि महंगाई घटने वाली नहीं है। असहनीय महंगाई ने जनता की जेबों को हल्का कर दिया है।
सरकार तो देश-राज्यों में बंटी फैली हुई है, किन्तु भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने या खत्म करने में नाकाम रहती है। भ्रष्टाचार प्रशासन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। भ्रष्टाचार तभी खत्म हो सकता है, जब कोई वाकई में उसे निष्पक्ष भाव से राष्ट्र व जनहित मेें खत्म करने के लिए तैयार हो। गांव-शहर, जिला-प्रदेश में प्रशासन का परीक्षण करेंगे तो प्रशासनिक तंत्र लकवा ग्रस्त हो गया है। जिलों में राजस्व मामले बढ़ रहे हैं। जिला स्तर की न्यायिक व्यवस्था भी लचर है। आफिसों-न्यायालयों के चक्कर काट कर जनता परेशान हैं। आफिसों में कामचोरों की काम न करने की कला से जनता बखूबी वाकिफ है, लेकिन धैर्यवश या लाचारवश वह बर्दाश्त कर रही है। सरकार का ऐसा कोई विभाग नहीं है, जहां बगैर रिश्वत दिए जनता का काम हो जाए। नेताओं और अफसरों के मधुर संबंधों ने जन कल्याण व न्यायिक कामों को नेपथ्य में धकेल दिया है। प्रशासनिक तंत्र या कानून व्यवस्था वास्तव में संविधान से चलती है। प्रवचन या नारों या आरोप बाजी से नहीं चलती।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे?
चम्पक ने कहा कल मुझे भगवान सपने में आए थे। मैनें पूछा-आप कौन हो? तो उन्होंने कहा-मैं भगवान। मैने कहा- मास्क पहिनकर मेरे साथ बात करो। आपके दर्शन से भगवान मैं पावन हो गया। प्रभु बोले वरदान मांग वत्स, तेरी भक्ति से मैं प्रसन्न हुआ हूं।
कौन जाने? एकाएक मुझे भगवान पर गुस्सा आ गया। मैनें गुस्से में पूछा कि अनेक मरतबे 10 हजार वर्षों में अवतार लेकर आप ने इस भूमि में जन्म लिया है। कृष्ण को पांच हजार वर्ष से ऊपर हो गए। आकाश में कोई नर्क है, इसकी मुझे जानकारी नहीं है। किन्तु, स्वर्ग सदृश्य यह पृथ्वी अब नर्क समान हो गई है। समाज में सज्जनों से अधिक पापियों की संख्या बढ़ गई है। ‘‘गीता’’ के द्वारा अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करने आप ने वचन दिया है-‘‘परित्राणाय साधुनां विनाशाय दुष्कृताम, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’’ याने कि, सज्जनों-साधु जनों का उद्धार करने के लिए और पापियों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युगे युगे प्रगट होता हूं। हे प्रभु, अब तो मनुष्य के रग रग में घोर कलियुग व्याप हो गया है। अवतरित होने में किस बात की राह तक रहे हो? किन्तु मित्रों-न भगवान ने कोई जवाब दिया और न ही आश्वस्त किया। ‘‘तथास्तु’’ की बात तो छोड़ ही दो। एकाएक भगवान अदृश्य हो गए और मेरी नींद उड़ गई। फिर सोचने लगा। ईश्वर सर्वशक्तिमान हंै, इसके बावजुद अरबों दुखीजनों की क्यों मदद नहीं करते? ईश्वर की इच्छा के बगैर तो पत्ता भी नहीं हिलता। फिर ये भूकंप, अतिवृष्टि, आंधी तूफान, अकाल, सुनामी आदि क्या ईश्वर की इच्छा से आता है? युद्ध होता है, आतंकवाद टूट पड़ता है। चोरी, डकैती, खून, भ्रष्टाचार इन सभी को कैसे वाजिब ठहराया जा सकता है? शास्त्रों में अनेक मूल धर्मग्रन्थ है, जिसे लिखने वालों ने क्या अंधश्रद्धा का अतिरेक नहीं कर दिया? क्या उन्होंने सोचा नहीं होगा कि लोग भी कभी शिक्षित होंगे तो हमारी मजाक उड़ायेंगे?
पिछले एक साल से कोरोना काल चल रहा है। अरबों लोग घरों में बैठे हुए हैं। कई तो कोरोना काल का ग्रास बन गए। हम ईश्वर की संताने हैं वे क्यों महामारी को भेजेंगे? किन्ही दुष्टों ने कोरोना का विषाणु पैदा किया। यदि पापियों का पाप का घड़ा भर गया है तो वे अवतार क्यों नहीं लेते?
आज आदमी-आदमी के बीच में ईष्र्या-द्वेष, भेदभाव, शत्रुता और खून खराबी देखने में आ रही है तो क्या इन सब दुगुर्णों में ईश्वर की मर्जी है?
अनाम दो पंक्तियां-
- मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे,
तहजीब सलीले की, इन्सान करीने के।
– दीपक बुद्धदेव