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हाईकमान ही असली ‘‘बास’’ है, सत्ताधारी या सत्ताहारी नहीं

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वाकई ‘‘मेरा देश महान’’ इसलिए कहा जाता है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, ऐसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक वाले देश में भी छोटी-मोटी, सच्ची-झूठी जैसी अनेक लोकतंत्र विकसित होता रहता है। अनेक मर्तबे तो आम आदमी भी दुविधा में पड़ जाता है कि क्या वाकई में वह लोकतंत्र में जी रहा है? कल जो मुझे लोकतांत्रिक सरकार मिली थी, वह ऐसी तो नहीं थी। आज पूरे देश में लोकतंत्र की ऐसी प्रदुषित हवा फैल रही है कि जिसे जो करना है, वह करे। जैसा ‘‘मन’’ करे वैसा फेकमफेक करें, जैसा तन चले, वैसी मारामारी करें और जहां फण्ड दिखाई दे, वहां भ्रष्टाचार करें, लूटपाट करें। ऐसा सब तन-मन-धन के मिजाज व उनकी नीयत पर निर्भर करता है। सत्ताधारी स्वयं को ईश्वर का प्रयाय मानने लगता है। वह यह मानता है कि सत्ता पर बने रहने के लिए पार्टी को टिकाए रखना जरूरी है। पार्टी टिके रहेगी तो लोकतंत्र टिके रहेगा। लोकतंत्र टिकेगा तो सरकार टिकेगी। सरकार टिकेगी तो जनता के लिए लोकतंत्र अस्तित्व में रहेगा।

किन्तु, एक बात जो सर्वोपरि है, वह यह कि सत्ताधारी हो या सत्ताहारी, उनका असली बास हाईकमान होता है। वैसे, राजनीतिज्ञों को हाईकमान शब्द बहुत भयावह लगता है। राजनैतिक पार्टी के हाईकमान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्हें कभी भी चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वर के समान वह सर्वशक्तिमान होता है। उन्हें किसने हाईकमान का प्रमाण-पत्र दिया? किसने हाईकमान के लिए उन्हें नवाजा? किसने हाईकमान के रूप में उनकी नियुक्ति की? यह अनसुलझा रहस्य है। कई नियुक्तियां युक्तिपूर्वक होती है। क्यों कि, नियुक्ति में ही युक्ति काम करती है। सी.एम. की कुर्सी परमानेंट नहीं होती। हाईकमान चाहे जब सी.एम. को कुर्सी से लुढक़ा देता है और युक्तिपूर्वक अन्य को सी.एम. बना दिया जाता है। कुर्सी दौड़ का खेल भी बड़ा दिलचस्प होता है। चुनावी खेल या नियुक्ति खेल में परिवर्तन भी नियम होता है। कई राज्यों में चुनाव निकट हैं। सत्ता विरोधी लहर भी है। इसलिए, हाईकमान फिर वह किसी भी राजनैतिक दल का हो, वह मुख्यमंत्री बदलने में लगा है।

राजनैतिक कंगालियत : शहर गरीबी रेखा के नीचे
चम्पक लगता है आज तुम धीर गंभीर चर्चा करने के मुड में हो, तुम्हारा चेहरा कुछ ऐसा ही बयां कर रहा है। तुम ठीक कह रहे हो बाबूलाल, मेरा चेहरा तुमने ठीक पढ़ा। मेरे माथे पर खिंची चिन्ता की लकीरें इस बार शहर की दुर्दशा को लेकर है। राजनीतिक, औद्योगिक व संस्कारित रूप से हमारा शहर कंगाल हो गया है। खासकर, राजनीतिक कंगालियत के कारण तो हमारा शहर गरीबी रेखा के नीचे आ गया है। 15 सालों तक जिले के विधायक सूबे के मुखिया रहे, लेकिन जिले में एक बड़ा उद्योग लाने में असफल रहे। कहा तो गया था स्टील प्लांट से भी बड़ा उद्योग लायेंगे। लेकिन, मध्यम श्रेणी का उद्योग भी नहीं आया। इंडिया क्या, एशिया फेम हो चुका एक पोल्ट्री उद्योग उनके कार्यकाल में कोरोना महामारी जैसा बहुत फला-फूला। ऐसा प्रोत्साहन का उदारीकरण पूर्व भाजपा कार्यकाल में रहा।

तुम्हारा इशारा समझ गया चम्पक। लेकिन, पोल्ट्री, ब्रायलर उद्योग, साल्वेंट उद्योग, डेयरी उद्योग और बगैरह-बगैरह, भले ही एक ग्रुप ने लगाए हो, किन्तु हजारों को रोजगार भी तो उपलब्ध कराया है। फिर हमारा शहर औद्योगिक क्षेत्र में कंगाल कहां से हो गया? देखो बाबूलाल-ग्रुप के सभी उद्योग तो आखिर प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी जैसे हैं। मेरा इशारा बी.एन.सी. मिल की अकाल मृत्यु को लेकर है। मुखिया केन्द्रीय उद्योग राज्यमंत्री रहे तभी उसकी डेथ हो गई थी। राजनैतिक रूग्णता के चलते ऐसा हुआ था। तभी इसकी खानापूर्ति करने उन्होंने कहा था कि हम इससे भी बड़ा उद्योग लायेंगे। लेकिन, यह भी एक जुमला ही साबित हुआ। अब तो किसी बड़े भी उद्योग के लगने की कोई गुंजाइश ही नहीं है।

बी.एन.सी. मिल का खण्डहर दुखती नस
‘‘खण्डहर बता रहे हैं, इमारत बुलन्द थी’’ यह मुहावरा बी.एन.सी. मिल याने बंगाल नागपुर काटन मिल पर बिल्कुल सटिक बैठता है। सरकारी जमीन की 48 एकड़ रकबे पर मिल का साम्राज्य था। मिल की खण्डहर दीवारें दर्शाती हैं कि मिल कितनी भव्यातिभव्य ऐतिहासिक थी। सरकारी 48 एकड़ लीज की मियाद भी सालो हुवे खत्म हो गई है। लेकिन, एन.टी.सी. के बड़े नेटवर्क के चलते सरकार ने भी शायद घुटने टेक दिए हैं। एन.टी.सी. की अपनी मालिकी की साढ़े पांच एकड़ जमीन का एक हिस्सा तो एशिया फेम हुवे ग्रुप ने ही नीलामी में खरीदा है, ऐसा नीलामी समय में दिखाई तो दे रहा था। बाकी तो ‘राम’ जाने। जिले में राजनीतिक शून्यता ने प्रगति को लकवाग्रस्त कर दिया है। डाक्टर साहब के मुख्यमंत्रीत्व कार्यकाल में शहर विकसित हुुआ था, इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ा था। खेलों को प्रोत्साहित करने अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम, प्रसिद्ध दिग्विजय स्टेडियम, सांस्कृतिक आयोजनों को बढ़ावा देने आडिटोरियम, स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार लाने माइल स्टोन जैसा पेंड्री में नया मेडिकल कालेज, बसंतपुर स्थित मातृ-शिशु अस्पताल, गुरूद्वारा रोड पर ओ.पी.डी. अस्पताल, गांधी स्मारक भवन, गौरवपथ, सडक़ों का चौड़ीकरण, हाइवे पर ओव्हरब्रिज, ऊर्जा पार्क आदि अनेक विकास कार्यों को अमलीजामा पहिनाया गया था। आज का चित्र यह कि ये सभी उपलब्धियां रूग्णावस्था में हैं। दिन-ब-दिन हालात और बदत्तर होते जा रहे हैं। पक्ष-विपक्ष के जन-प्रतिनिधियों की दमहीन कार्य करने की रीत भी इसकी जवाबदार है।

शहर ने दिए श्रृंखलाबद्ध जुझारू नेता : चाचा जी, शास्त्री, तिवारी, ठाकुर रहे
आज शहर के वरिष्ठ नागरिकों को चाचा किशोरी लाल, पं. शिव कुमार शास्त्री, मदन तिवारी, ठा. दरबार सिंह, विद्याभूषण ठाकुर जैसे जुझारू नेताओं की कमी बहुत खल रही है। जब ये नेता जयस्तंभ चौक में विपक्ष की भूमिका में दहाड़ते थे तब पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल तक उसकी गूंज सुनायी देती थी। अब तो यह सपना सा हो गया।
अब लक्जीरियस राजनीति का दौर
वर्तमान की राजनीति लक्जीरियस हो गई है। जन प्रतिनिधिगण तो धरना, प्रदर्शन, आंदोलन से दूर ही रहते हैं। सक्रियता केवल प्रेस विज्ञप्तियों में ही दिखाई देती है। जहां तक पूर्व में हुवे करोड़ो-अरबों के विकास कार्यों को लेकर है तो मोटी कमीशनखोरी के लोभ में विकास तो हुआ किन्तु, अब उससे किसी को कोई सरोकार नहीं है। शहर में भले ही कोई बड़ा उद्योग नहीं आया हो, किन्तु, राजनैतिक उद्योग बहुत फला-फूला। चंद इन गिने 5-6 शहरी नेता करोड़ों में लोटपोट रहे हैं। खूब पैसे बनाने के चक्कर में एक नेता कूदफांद करते हुवे आयाराम-गयाराम जैसा रहा।

विकास आई.सी.यू. में
शहर का विकास घोर अंधेरे में सूरदास सदृश्य हो गया है। कहीं से कोई रौशनी की किरण भी आने से रही, ऐसे हालात हैं। सडक़ें तो पहले से ही गढमढ थी। अब सिलसिला-ए-बारिश से और भी हालत खस्ता हो गई है। वाहन चालकों और सवारियों का आवागमन जोखिम से भरा है। शहर की तस्वीर बड़ी बैड है। अमृत मिशन से हुवे गढ्ढे पाटने या उसके सुधार या मेन्टेन की तो कोई सुध ही नहीं लेता। बताते हैं, नगर निगम की माली हालत ठीक नहीं है। नेतागिरी में दम नहीं है। ऊपर से फण्ड लाने जितने भी सक्षम नहीं है। शहर व शहरवासियों के लिए रमन सरकार की बिदाई को लोग दुर्भाग्य मान कर चल रहे हैं। जहां जो कुछ भी थोड़ा बहुत काम हो रहा है, वहां संबंधित अपने भ्रष्टाचार का कोटा पूरा करने तक ही सीमित हैं। भ्रष्टाचार और चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करना नेता लोगों के स्वभावगत गुण हैं। जीतने के बाद वादे रफू चक्कर हो जाते हैं। और जो पूरे किए भी जाते हैं, वे अधमरे जैसे होते हैं। अब जनता को चुनाव के दौरान सत्तासीन पार्टी व उसके उम्मीदवारों से इतना तो पूछना ही चाहिए कि पिछली बार कौन-कौन से वादे किए थे और उनमें से कौन-कौन से वादे पूरे नहीं हुवे हैं?

कोरोना के भय से फीका मना गणेशोत्सव
भक्त समाज में सामान्य लोग भी होते हैं और असामान्य लोग भी होते हैं। गणेश चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक भक्तों ने गणेश जी की पूजा-अर्चना व वंदना की। वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि…. से शुरूवात होती थी। सभी का भक्ति भाव भी अलग-अलग होता है। मंजिल एक होने के बावजुद रास्ते अलग-अलग होते हैं।
कोरोना के साये के दायरे में गणेशोत्सव की विदाई हुई। पूरे प्रदेश में स्थल व विसर्जन झांकियों के लिए प्रसिद्ध यह शहर विसर्जन के दिन-रात सूना-सूना सा रहा।

दुष्यन्त कुमार के गजल की चंद लाइनें-
ये सारा जिस्म झुक कर
बोझ से दुहरा हुआ होगा।
मैं सजदे में नहीं था,
आप को धोखा हुआ होगा।
दीपक बुद्धदेव

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