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शहर की सरगम

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आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे….!
मीडिया के योगदान से कभी-कभी मोर और चोर के अंतरंग प्रेम संबंध इतनी हद तक उजागर होते हैं कि मोर और चोर अपने-अपने कोरस सांग में सेवा के गौरव की महिमा गान करतेे हैं कि ‘‘आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर जबान पर सबको मालुम है ओर सबको खबर हो गई’’, चम्पक लाल ने अपने मजाकिया लहजे में इसे कहा। देखो चम्पक इसे साहस ही कहना चाहिए। वास्तव में यह सहकारी साहस है। हमारा देश सहकारी भावना पर चलता है। यह तो पिछले 75 सालों से हम देख रहे हैं और प्रूफ भी हो चुका है। सत्ता-सरकार के करीबी रहे कई कथित रसूखदारों ने देश को करोड़ों-अरबों का चूना लगाया और फारेन शिफ्ट हो गए। सहकारी भावना से ही यह संभव हुआ है, बाबू लाल ने कहा।
शहरवासी-सेवा मोर करे या चोर करे, सेवा तो आखिर सेवा ही है। मोर खुले आम सार्वजनिक रूप से सेवा करता है, चोर अपनी आचार संहिता का सम्मान करते हुवे चोरी-छिपे सेवा करता है। सेवा किसकी करता है? इसका महत्व नहीं है, सेवा कर रहे हैं, महत्वपूर्ण यह है। मोर भी ऐसा ही दावा करता है कि हम जनसेवा कर रहे हैं। चोर भी ऐसा दावा करता है। मोर और चोर की सेवा समानांतर चलती है। ‘‘भूनीति’’ का नियम है कि, दो समानांतर रेखाएं एक दूसरे को छेदती नहीं। इस सिद्धान्त के अनुसार मोर को चोर का और चोर को मोर का सहयोग सम्पूर्ण रूप से मिलते रहता है।
दोस्तों, आजादी के बाद हमारे यहां एक ही उद्योग ऐसा मुनाफाकारी है कि अगर जनादेश पाकर कोई पांच साल के लिए चुना जाता है तो उसकी ‘‘पौ-बारह’’ हो जाती है। सत्ता-सरकार में भागीदारी मिली तो कई पुश्तों तक का इंतजाम हो जाता है। हमाम में तो सभी नंगे हंै। कभी मोर चोर बनता है तो कभी चोर मोर बनता है। अब ये कौन सा उद्योग हो सकता है? समझदारों के लिए तो इशारा ही काफी है। वैसे यह कहावत भी सौ फिसदी सही है-जंगल में मोर नाचा किसने देखा?
एक बुद्धिजीवी ने राजनीति के एक वरिष्ठ नेता से पूछा- सत्ता टिकाए रखने की सबसे सीधी और सरल चीज क्या है? तब नेता ने ठहाका लगाते हुवे कहा कि -‘‘हास्य’’! पब्लिक का ऐसा मनोरंजन करें वह अपने प्राथमिक दु:खों को भूलकर ‘‘आपमय’’ बन जाए। पब्लिक को चुनावी साल में टीवी चैनलों से ऐसा ही मनोरंजन परोसा जा रहा है। मोरों और चोरों का संवाद या डिबेट किसी भी मनोरंजन से कम तो नहीं है?
० 21 वीं सदी में भी हम पीछे चल रहे हैं….
किसी भी देश की प्रगति का माप लेना हो तो उसकी राजनीति, अर्थनीति, शिक्षा और कला की ओर दृष्टि करनी चाहिए। ये सभी किसी भी देश के सार्वजनिक जीवन की नींव है। इस नींव के उक्त स्तंभों में से कोई भी स्तंभ कमजोर हो तो देश भी उतना ही कमजोर होता है।
हम 21 वीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं। किन्तु, कई बाबतों में ऐसा लगता है कि हम बहुत पीछे चल रहे हैं। गैर साम्प्रदायिक देश में आज भी साम्प्रदायिक ताकतें सिर ऊंचा कर रही हैं। राजनीतिज्ञों की भाषा भी असंयमित है। किसी पार्टी के कार्यकर्ता विरोधी नेता के पुतले जलाते हैं। कोई धिक्कार रैली निकालता है तो कोई थूं-थूं रैली निकालता है, कोई मशाल रैली निकालता है तो कोई काले झण्डे दिखाता है। सद्भावना के तो दर्शन ही नहीं होते।
जनता महंगाई से त्रस्त, युवा रोजगार से वंचित, शिक्षा महंगी और नौकरी गायब, राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ा किन्तु रोजगार घटा। असंगठित कर्मचारियों का भविष्य अंधेरे में।
दोस्तों का चिन्तन स्वाभाविक था। 75 सालों पहले जब देश और देशवासी स्वतंत्र हुवे थे, तब देश भर में देशभक्ति की एक प्रचंड लहर थी। देश को गांधी से लेकर नेहरू तक एक दीर्घाकार नेतृत्व मिला था। जिनकी प्रेरणा से युवावर्ग देश के लिए कुछ भी न्यौछावर करने तैयार था। आजादी के बाद देश में अनेक वर्षों तक प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिभावों की महक थी। संगीत-साहित्य, कला, सिनेमा, शिक्षा, राजनीति में शुचिता व उच्चता के दर्शन होते थे।
आज का चित्र बिल्कुल इसके विपरीत है। सवाल यह उपस्थित हुआ है कि जनता राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य निभाने में असफल हुई है क्या? सरकार तो जनता के प्रश्नों को हल करने में असफल हुई है, इसमें कोई संदेह नहीं है। सच तो यह है कि लोकतंत्र में सरकार और मंत्री जनता के बीच से ही आते हैं। सरकार की सफलता या असफलता का आधार भी जनता पर ही होता है। इस मापदण्ड को माने तो देश में निराशाजनक माहौल है।
० पंचायती राज: भ्रष्टाचार का अजगर विकास और योजनाओं को लील रहा है
मेढ़ा सहकारी समिति में से किसानों के खातों से लाखों का गोलमाल हो गया। मामला गर्म है। पक्ष-विपक्ष नेताओं के बयान तिरंजादी खेल से कम नहीं हैं। जिला पंचायत बैठक में केसीसी घोटाला सहित अनेक विभागों में व्याप्त अनियमितताएं, लेट लतीफी व मालगाड़ी की धीमीगति, चली तो चली, रूकी तो रूकी पर जिला पंचायत अध्यक्ष गीता घासी साहू ने सरकारी कार्यों की मंथर गति और गुणवत्ता की कमी पर नाराजगी बतायी। समस्या यह है कि पंचायती राज व्यवस्था के निर्वाचित सदस्यों और स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों के बीच कटु संबंध की उपस्थिति दुर्भाग्यजनक है और पंचायती राज अधिनियम में इस समस्या पर विचार नहीं किया गया है। पंचायत राज व्यवस्था में जिन विषयों का उल्लेख किया गया है, जिसके अनुसार पंचायत कार्यक्रम बना सकती है। पर इन सब पर राज्य सरकार का भी अधिकार बना हुआ है। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि इन विषयों पर प्राय: राज्य सरकार का ही दबदबा बना हुआ है। भ्रष्ट प्रकरणों में संगीन कार्रवाई नहीं होती। अधिकांश योजनाओं में केन्द्र का पैसा होता है। भ्रष्टाचार का अजगर विकास, जन कल्याणकारी कार्यक्रमों और गरीबों को लील रहा है।
० कैम्पा योजना में प्रथम दृष्टया ही भ्रष्टाचार
बाबूलाल गा उठा- हम लोग हैं ऐसे दीवाने, दुनिया को झुकाकर मानेंगे….। बोला-शहरवासी तुमने बिल्कुल पते की बात कही है। राज्य की ‘‘हरियर योजना’’ हो या ‘‘कैम्पा योजना’’ जिसमें मोटा पैसा केन्द्र सरकार देती है। बदनीयती का आलम यह कि भीषण गर्मी में खुज्जी रेंज के पांडुका में वनाधिकारियों ने लाखों रूपए के पौधारोपण कर दिये। प्रथम दृष्टया भ्रष्टाचार इसी को कहते हैं। डी.एफ.ओ. से लेकर फारेस्ट गार्ड तक की मिलीभगत से ही ऐसा ही संभव है। सरकारी पैसा उदरस्त करने न पौलीथीन थैलियां, न बीज, उपजाऊ मिट्टी, रेत व सड़े गोबर की खाद की व्यवस्था थी। फिर ऐसी व्यवस्था करना भी क्यों? जब योजना का क्रियान्वयन कागजों में ही दर्शाना है। पौधारोपण की अनुकूलता बाबत फिर सोचना ही किसे है?
हर साल पौधारोपण हेतु करोड़ों आते हैं। पौधारोपण करना भी एक तकनीकी कार्य है। पौधारोपित करने में किसी प्रकार की गलती करने की सजा उस समय तक भोगनी पड़ती है, जब तक वृक्षारोपण होता है। कैम्पा मद योजना के भ्रष्टाचार की जांच जिला पंचायत या राज्य स्तर से होगी, इसकी संभावना नहींवत् है। पी.एम. नरेन्द्र भाई के पी.एम.ओ. तक शिकायत पहुंचे तभी संगीन सीरियसली जांच हो सकती है।
० राजनैतिक पार्टी पब्लिक लिमिटेड बनेगी तो वोटर भी पार्टनर बनेंगे
आजादी के बाद केवल एक ही कम्पनी मुनाफे में है। जिसमें लोगों की चाहत होती है कि अपनी जिन्दगी का अमूल्य टाइम उसमें इन्वेस्ट किया जावे। जनता धैर्यवान है। कम्पनी आज नहीं तो कल डिविडेंड देगी। आशा अमर है। ठीक ऐसी ही जैसे अडानी की सभी कम्पनियों के शेयर ‘‘हिंडलबर्ग रिपोर्ट’’ के बावजुद लोग खरीद रहे हैं। ऐसा अमर आशा के ही सहारे संभव है। जनता ने तो 75 साल निकाल दिए। किन्तु, मुनाफे की आस यथावत है। फिलहाल, राजनैतिक कम्पनियों पर नजर डालें तो कोई राजनैतिक कम्पनी ‘‘गरीबी हटाओ’’ के नाम पर डिविडेंड देती है तो कोई कम्पनी ‘‘नई रौशनी लाना है’’ के नाम पर बोनस शेयर देती है। कोई कम्पनी ‘‘विकास’’ के नाम पर या ‘‘गतिशीलता’’ के नाम पर जनता को डिविडेंड देती है। जनता नेताओं के मनोरंजन लिए प्रवचनों पर ही खुश हो जाती है। वर्तमान में एक राजनैतिक कम्पनी ‘‘हिन्दु राष्ट्र’’ बनाना है, का डिविडेंड दे रही है।
शहरवासी उवाच कि शासन कर रही या शासन करने की मांग करने वाली कोई राजनैतिक पार्टी को, अपनी पार्टी को देश से भी ज्यादा महान बनाना हो तो पार्टी को ‘‘प्राइवेट लिमिटेड’’ में से बाहर निकाल कर ‘‘पब्लिक लिमिटेड कम्पनी’’ में बदल देना चाहिए और अपना ‘‘आईपीओ’’ बाहर निकालना चाहिए कि जिससे छोटे-मोटे वोटर भी अपने को केवल वोटर ही नहीं, पार्टनर भी समझे। ऐसा समझाने में नेताओं को कोई नुकसान भी नहीं है। कहते है न ‘‘दुनिया झुकाने वाला चाहिए’’।
उर्दू शायर फैज ने कहा है-
कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो,
बाजु भी बहुत, सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल ही पे डालेंगे।
-शहरवासी

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