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जितने तीर थे सब चला लिए, क्या अब जाति जनगणना ही विपक्ष को 2024 की नैया पार कराएगी

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जब आप सत्ता में होते हैं तो आपके मुद्दे कुछ और होते हैं. विपक्ष में आते ही आपके मुद्दे बदल जाते हैं. ऐसी ही कुछ जल्दबाजी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल भी जातीय जन गणना को लेकर दिखा रही है. कर्नाटक में कुछ दिनों पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने केंद्र से जाति-आधारित सेंसस का डेटा निर्गत करने की मांग की. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी उसी बात की पुनरावृति करते हुए जातिगत सेंसस को लेकर बड़ा आंदोलन करने की चेतावनी देते हुए एनडीए सरकार को घेरने की चुनौती दे डाली. 24 अगस्त, 2021 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के सभी दलों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर जातीय जनगणना करवाने की मांग की थी. केंद्र ने जातीय गणना को लेकर कोई स्पष्ट सहमति तो नहीं दी, लेकिन ये कहा कि जो राज्य जातीय सर्वे करना चाहते हैं, करवा सकते हैं. बिहार में जातीय राजनीति को लेकर खासा झुकाव रहा है. जातीय अहमियत को पूरी तरह से दरकिनार करना किसी भी पार्टी के लिए संभव नहीं है, यहां तक कि बीजेपी ने भी जातीय जनगणना का कभी भी प्रत्यक्षतया विरोध नहीं किया.

उम्मीद है कि 2024 के आरंभ में राममंदिर निर्माण अपने पूर्णता की तरफ बढ़ रहा होगा, जिसको लेकर पूरे देश में बीजेपी भी अलख जगाएगी. ऐसे में कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के पास जातीय जनगणना ही एक मात्र तुरुप का पत्ता रह जाएगा. बिहार में विपक्ष के कई नेता मानते हैं कि अगर उन्होंने जातीय जनगणना को राष्ट्रीय चुनावी मुद्दा नहीं बनाया तो राम मंदिर लहर को कैसे रोकेंगे? ध्यान देने योग्य बात यह है कि केंद्र के पास रोहिणी कमिशन की रिपोर्ट भी पड़ी है, जिसमें कई आंखें खोलने वाले खुलासे हो सकते हैं.

आखिर जातीय जनगणना को लेकर कांग्रेस अचानक क्यों हुई आक्रामक?
बिहार सरकार 500 करोड़ रुपए खर्च करके जातीय सर्वे करवा रही है. इस फैसले की कुछ हल्कों में आलोचना भी हुई, लेकिन बिहार सरकार की तरफ से बताया गया कि जातीय सर्वे से सरकारी योजनाओं को गरीब लोगों तक ले जाने में मदद मिलेगी. आखिर बार सामाजिक और आर्थिक सर्वे 2011 में किया गया, जिसमें सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े जारी किए. इससे पहले 1951 से लेकर 2011 तक जितने भी सेंसस प्रकाशित हुए सभी में अनुसूचित जाति और जनजाति को लेकर ही आंकड़े प्रकाशित किए गए थे. उस समय वर्ष 2014 के मध्य तक कांग्रेस ही यूपीए सरकार का नेतृत्व कर रही थी, अगर वो जातीय जनगणना को लेकर इतने सजग रहते तो उसे रोककर क्यों रखते?

ओबीसी में आखिर सबको क्यों है दिलचस्पी?
1941 में द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका और जातीय विविधता और व्यापकता की वजह से आंकड़े प्रकाशित नहीं किए जा सके. इससे पहले 1931 तक जितनी जातीय जनगणना हुई उसमें एससी/एसटी के अलावा अन्य जतियों की भी गणना की गई. आखिर जातीय सर्वे को लेकर कांग्रेस भी अचानक क्यों आक्रामक हो रही है? पूरे देश में लोकसभा चुनाव 2024 के पूर्वार्ध में संभावित है, लेकिन उससे पहले बिहार सरकार अपना चुनावी सर्वे का डेटा जारी कर सकती है. नीतीश कुमार को लगता है कि जातीय सर्वे से ओबीसी की सही संख्या का पता चल जाएगा, जिस पर नीतीश समेत सभी पार्टियों की नजर है. अभी तक ओबीसी की कुल संख्या समूची आबादी का 51 प्रतिशत बताया जाता है, यही आंकड़े तभी मण्डल कमिशन का आधार बने थे.

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