चुनाव आयोग की ओर से पश्चिमी बंगाल में चुनाव की तारीखों के एलान के साथ सियासी रणभेरी बज चुकी है। बंगाल विधानसभा चुनाव इस बार देखने लायक होगा, क्योंकि इस चुनाव के लिए सियासी ज़मीन बहुत पहले से ही तैयार की जा चुकी है। जीत की दावेदारी तो सभी करते है, लेकिन असली विजेता वहीं होता है, जो अपने दम पर जीत हासिल करे। इसमें कोई शक नहीं कि बंगाल का चुनाव इस बार सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच होने जा रहा है।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने बंगाल की 42 सीटों में से 18 सीटें जीतकर अपनी ताकत को यहां और मजबूत किया है। बीजेपी के पास इस वक़्त ऐसा सुनहरा अवसर है, जिसे वह किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहेगी, क्योंकि बिहार चुनाव जीतने के बाद बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। बिहार और झारखंड से सटा हुआ होने के कारण पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को इसका सीधा लाभ हो सकता है। यही वजह है कि बंगाल के इस चुनावी दंगल में ‘मोदी बनाम ममता’ के तौर पर दोनों मुख्य पार्टी मैदान में अपनी ताकत दिखाना चाहती हैं। चुनाव की तारीखों के एलान के बाद अब पीएम मोदी बंगाल में 20 चुनावी सभा करने जा रहे है।
कांग्रेस और माकपा के लिए यह चुनाव एक वैक्यूम पैदा कर सकता है, क्योंकि कांग्रेस और माकपा का राजनैतिक जनाधार या तो अब लगभग खत्म हो चुका है या फिर राजनीतिक ज़मीन दोनों के ही हाथों से दूर होती जा रही है। बीजेपी और टीएमसी की टकराहट के बीच कांग्रेस और वामपंथी कुनबे में आत्मविश्वास का संकट गहराया हुआ है।
बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीधी टक्कर उस ममता बनर्जी से जिन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत महज 21 साल में की थी और राजनीति में तमाम मुकाम अपने दम पर हासिल किए। ममता बनर्जी ने वर्ष 1976 में महिला कांग्रेस महासचिव के पद से पहली बार सक्रिय राजनीति में कदम रखा। वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर अपनी संसदीय पारी की शुरुआत की।
ममता ने अपने राजनीतिक जीवन का एक बड़ा अहम फैसला तब लिया, जब उन्होंने कांग्रेस पर माकपा के सामने हथियार डालने के कई बड़े गंभीर आरोप लगाए और अपनी नई पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन 01 जनवरी 1998 को किया। इस पार्टी ने राज्य में एक मुख्य विपक्षी पार्टी बनकर कांग्रेस और माकपा के खेमे में खलबली मचा दी थीं।