नई दिल्ली, पृथ्वी पर जीवन के आधारभूत अंगों में मौसम भी एक महत्वपूर्ण अंग है। मानव जीवन और मौसम एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं। मौसम की महत्ता उन ऐतिहासिक साक्ष्यों से समझी जा सकती है, जो यह दर्शाती हैं कि तमाम मानव सभ्यताएं मौसमी प्रभावों की भेंट चढ़कर काल-कवलित हो गईं। वर्तमान दौर में यह प्रश्न फिर से प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि फिलहाल समस्त विश्व जिस जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना कर रहा है, उसका सरोकार भी मौसम से ही है।
जलवायु परिवर्तन के कारण तमाम प्रतिकूल मौसमी परिघटनाएं हो रही हैं, जिनमे जान-माल की क्षति के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर पर्यावरण-असंतुलन की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। हालांकि, निरंतर विकसित होते विज्ञान की सहायता से कुछ मौसमी घटनाओं के पूर्वानुमान से ऐसी क्षति को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन, तकनीकी उन्नयन के अनुपात में मौसम से जुड़ी चुनौतियां कहीं अधिक बढ़ती जा रही हैं।
मौसम के अनियमित बदलाव की चुनौती का मुकाबला केवल सरकारों या संस्थागत स्तर पर संभव नही है। बल्कि, इसके लिए सामुदायिक और व्यक्तिगत प्रयासों की भी आवश्यकता होगी। इसी आवश्यकता को रेखांकित करने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को विश्व मौसम विज्ञान दिवस का आयोजन किया जाता है। हर साल इसकी एक नई थीम होती है। इस वर्ष की थीम ‘द ओशियन, आवर क्लाइमेट ऐंड वेदर’ अर्थात ‘महासागर, हमारी जलवायु और मौसम’ है।
1950 के बाद से हर साल 23 मार्च को पूरी दुनिया विश्व मौसम विज्ञान दिवस मना रही है। इस अवसर पर अंतरराष्ट्रीय मौसम विज्ञान संगठन पुरस्कार, नॉर्बर्ट गेर्बियर-मम अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और प्रोफेसर डॉ. विल्हो वैसाला पुरस्कार जैसे विशिष्ट सम्मान भी प्रदान किए जाते हैं। इसी दिन विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की स्थापना हुई थी।
यह शीर्ष वैश्विक संस्था संयुक्त राष्ट्र का ही एक अनुषांगिक संगठन है। डब्ल्यूएमओ की स्थापना वर्ष 1873 में ही हो गई थी, और अब 190 से अधिक देश इसके सदस्य भी हैं। यह संगठन विभिन्न राष्ट्रों के साथ समन्वय कर मौसम संबंधी परिघटनाओं पर ध्यान केंद्रित करता है। विश्व मौसम विज्ञान दिवस के आयोजन की जिम्मेदारी भी इसी की होती है। इस अवसर पर देश-विदेश में तमाम कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। आज पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्या का सामना कर रहा है। ऐसे में, इस संगठन की भूमिका बढ़ गई है।
समकालीन संदर्भों में इस वर्ष की थीम बहुत ही प्रासंगिक है। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा तो यही कि पृथ्वी के अधिकांश हिस्से पर महासागरों का ही फैलाव है। अकेला प्रशांत महासागर ही इतना विशाल है कि उसके ऊपर से कई घंटों तक उड़ान भरने के दौरान आपको शायद भूखंड के किसी हिस्से के दर्शन ही दुर्लभ हो जाएं। चूंकि महासागर इतने विस्तृत हैं और उनका अपना एक व्यापक पारितंत्र है तो स्वाभाविक रूप से पृथ्वी पर मौसमी परिघटनाओं को प्रभावित करने वाले वे महत्वपूर्ण कारक हैं।
उदाहरण के तौर पर प्रशांत महासागर में पेरु के तट पर घटने वाली अल-नीनो और ला-नीना मौसमी कारकों का असर भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे महादेशों तक पड़ता है। इतना ही नहीं जिस मानसून को भारत का वित्त मंत्री कहा जाता है, उसके निर्माण की प्रक्रिया भारत की तट रेखा से हजारों नॉटिकल मील दूर हिंद महासागर स्थित द्वीपीय देश मेडागास्कर के तट से आरंभ होती है। आज इन महासागरों के समक्ष स्थल में बढ़ते प्रदूषण की एक विराट चुनौती उत्पन्न हो गई है।
पर्यावरण से जुड़ी एक संस्था का यह आकलन कि अकेले प्रशांत महासागर में फ्रांस के आकार के बराबर कचरा जमा हो गया है, स्थिति की भयावहता की ओर संकेत करने के लिए पर्याप्त है। इतना ही नहीं महासागरों में बढ़ते प्रदूषण के कारण समुद्र की सतह का रंग भी प्रभावित हो रहा है, जिससे समुद्री आहार श्रंखला के आधारभूत स्तंभ माने जाने वाले प्लैंकटन पादपों को प्रकाश संश्लेषण करने में समस्या आ रही है। ये सभी रुझान दर्शाते हैं कि महासागरों के साथ मानवीय छेड़छाड़ बहुत बढ़ गई है।
उनका कोप अक्सर उन चक्रवातों के रूप में हमें झेलना भी पड़ता है, जिनकी आवृत्ति पिछले कुछ समय से काफी बढ़ गई है। महासागरों के इस बदले हुए मिजाज के कारण मौसम और ऋतुओं का चक्र भी बदल रहा है, जिसके मानव जीवन पर विविध प्रभाव पड़ रहे हैं। ऐसे में महासागरों के बदलते हुए रुझान और मौसम एवं जलवायु पर पड़ने वाले उनके प्रभाव की थाह लेना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो गया है। इस वर्ष मौसम विज्ञान दिवस के अवसर पर इसे केंद्रबिंदु बनाया जाना एक स्वागत योग्य कदम है।