एक फिलासफर ने कहा था- मनुष्य में सतत् रूप से दो प्रवृत्तियों के बीच टक्कर होती ही रहती है। एक है जीवन प्रवृत्ति और दूसरी है मृत्यु प्रवृत्ति। अंग्रेजी में क्रमश: इसे ई रोज और थेनेरोज कहते हैं। जीवन प्रवृत्ति का संबंध सेक्स, प्रेम और विकास जैसे रचनात्मक बाबतों से है। मृत्यु प्रवृत्ति का संबंध द्वेष, खंडन और संहार जैसी नकारात्मक बाबत के साथ है।
इसे पीड़ाजनक-आश्चर्यजनक भी कहना चाहिए कि, भारतीय राजनीतिज्ञों ने भी जो चीज बनायी है, उसका नाम है- राजनीति। ईश्वर ने जितनी भी वस्तुएं बनायी है उसमें विलक्षण अजीबोगरीब है ‘राजनीति’। या यह भी कह सकते हैं कि ईश्वर के द्वारा बनायी गई तमाम चीजों में से भी सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण ‘राजनीति’ बन गई है। जिसे तो अब सामान्य आदमी भी समझने लगा है। किन्तु, कष्टप्रद यह कि राजनीतिज्ञों द्वारा बनायी गई यह राजनीति नाम की चीज दिमाग का दही ही नहीं बनाती मक्खन बनने के बावजुद समझ में नहीं आती। इसका कारण यह है कि देश में राजनीति सत्तालक्षी बन गई है। चुनावी प्रचार पराकाष्ठा पर पहुंच गया है। चुनावी घोषणा पत्रों में वोटों को बटोरने नि:शुल्क चीजों को दिये जाने का वचन जनता को दिया जाता है। भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार बन गया है। वोट पाने देश की सभी राजनैतिक पार्टियों के द्वारा लोगों को नानाप्रकार के प्रलोभन और लालच दी जाती है। चुनावों में नेताओं की नैतिकता निर्वस्त्र हो जाती है। हमारी राजनीति अब आयाराम-गयाराम की नौटंकी जैसी हो गई है। किसी के साथ हजार-दो हजार की ठगी करो तो 420 की कलम लगती है किन्तु जनता के साथ सरेआम द्रोह करने वाले को कुछ नहीं होता। हमारे देश के राजनैतिक दल कितनी सीमा तक नीचे उतर सकते हैं, उसकी बड़ी शर्मनाक घटनाएं चुनाव पूर्व घटती हैं। दलबदल नानस्टाप घटिया स्तर तक पहुंच रहा है।
दलबदलुओं को लगता है कि उसने अपने गाडफादर को खुश रखने क्या-क्या नहीं किया? उसने जिसके साथ संबंध तोडऩे के लिए कहा तोड़ दिया। गाडफादर ने जिनके साथ संबंध-जोडऩे के लिए कहा, हमने एक क्षण का भी विलम्ब किए बगैर जोड़ लिया। इस प्रकार करने से मेरी पर्सनल लाइफ में ‘क्या खोया-क्या पाया’ इसका ख्याल करते ही कांप जाता हूं। हमने जिनके पैर छूए, उन्होंने ही मुझे धक्का मारा। कोई बात नहीं, धक्का मारा तो मारा…. और हाथ से मारा होता तो कोई बात ही नहीं। किन्तु, जिस पैर की हमने पूजा की थी, उसी पैर से…? हमने टिकिट मांगी थी ईश्वर, लात तो नहीं मांगी थी।
अपने राजनैतिक कैरियर में गांधी परिवार के आशीर्वाद से सत्ता में विभिन्न शिखरों पर पहुंच सत्तासुख भोगने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद गुलाम नबी अब कांग्रेस को छोड़ चलते बने हैं, अब इसे क्या कहेें? यह तो ऐसा ही हुआ ‘मीठा-गप-गप और कड़वा थू-थू।’
नगर निगम: कमीशनखोरी व भ्रष्टाचार से शहर के विकास का बेड़ागर्क
अंतत: अति विलम्ब, काफी मशक्कत के बाद बूढ़ासागर सौन्दर्यीकरण की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक हुई। ऐतिहासिक बूढ़ासागर को युवा बनाने में करोड़ों खर्च हुए, लेकिन तत्कालिन भ्रष्ट राज में सागर सुन्दर, तो नहीं हुआ, किन्तु संबंधित अफसर, नेता व ठेकेदार की तिजोरी नोटों से भर गई। अब दोषियों पर कार्यवाही होना निश्चित है, ऐसा फिलहाल तो मान ही लिया जाए। कि, कर्मचारी-अधिकारी किसी भी राजनैतिक दल से संबंध नहीं रखते, वे व्यवसायिक कार्य करते हैं। व्यवस्थापिका उनकी न्यायोचित काम से संतुष्ट होती है और कानून भंग, भ्रष्टाचार होने पर संबंधित जिम्मेदारों को दंडित भी करती है। नगर निगम के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों महापौर, पार्षदगण स्वाभाविक रूप से दलबंदी से ग्रस्त हैं। चंद अपवाद स्वरूप निर्दलियों को अलग कर दें तो यहां कांग्रेस व भाजपा के पार्षद हैं। जिनमें कोई पार्षद अनुभवहीन है तो कोई अपने वार्डों का अनेक मर्तबे प्रतिनिधित्व कर पार्षद बनने में सफल हुवे हैं।
अब नगर निगम में कांग्रेस का शासन है। महापौर का कार्य निगम प्रशासन के प्रशासकीय यंत्र तक ही सीमित नहीं है, उसे अपनी पार्टी की विकास योजनाओं के उचित क्रियान्वयन पर भी निरीक्षण दृष्टि रखनी है। इसी के साथ, जनता के बीच से आए हितों और निहित स्वार्थों से भी निपटना होता है। महापौर होने के नाते उसका त्रिमुखी रूप होता है। एक ओर, वह प्रशासन का नेतृत्व करती है, दूसरी ओर, उससे राजनैतिक नेतृत्व की आशा भी की जाती है। महापौर को राजनैतिक नेतृत्व के मद्देनजर राजनैतिक प्रतिस्पर्धी दल, निहीत स्वार्थी तत्वों, मीडिया से भी भिडऩा होता है।
बहरहाल, नगर निगम की सामान्य सभा में थप्पड़ की गूंज, पूर्व शासन में हुवे भ्रष्टाचार के मामले सदन में प्रकाश में आए। मीडिया के जरिए जनता तक खबरें पहुंच रही हंै। जनता भी जागरूक व परिपक्व हुई है। उसे इस बात का बेहद अफसोस है कि हजारों करोड़ों के आबंटित होने के बावजुद शहर में विकास देखने को नहीं मिल रहा। निर्वाचित प्रतिनिधियों को केवल अपनी कमीशनखोरी तक ही रूचि रहती है। फिर सत्ता किसी भी राजनैतिक दल की क्यों न हो?
मीडिया की ताकत को सरकार ने समझा : रियायती जमीन, नि:शुल्क भूमि विकास और अब अपेक्षा नि:शुल्क मकान की
भव्यातिभव्य प्रेस क्लब का भवन शहरवासियों को स्वाभाविक रूप से आकर्षित कर रहा है। क्लब के पत्रकार सदस्यों की तो बल्ले-बल्ले है। प्रेसक्लब भवन के भूमिदाता भाई बहादुर अली, पूर्व की रमन सरकार और वर्तमान की भूूपेश सरकार के उदारमन से दिए आर्थिक योगदान की ही फलश्रुति है कि ‘प्रेस भवन’ सर्वसुविधायुक्त हमारे सामने हैं। पत्रकारों-सम्पादकों की सरकार से प्रमुख रूप से तीन ही अपेक्षाएं रहती हैं। रियायती दर पर आवासीय-व्यवसायिक जमीन, नि:शुल्क स्वास्थ्य सुविधा-यात्रा प्रवास और विज्ञापन।
मीडिया फिर वह प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक, उसका कैमरा शिव की तीसरी आंख की तरह है। वह सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को देखता है और पलक तक नहीं झपकाता। वास्तव में वह दोधारी तलवार की तरह है। मीडिया लोगों की छबियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता है तो इसके उलट उनका स्वरूप भी बिगाड़ सकता है। शायद इसी ताकत को सरकार फिर वह किसी भी पार्टी की हो, इसी परिप्रेक्ष्य में मीडिया की ताकत को समझती है। एक कड़वा सच यह भी कि व्यवसाय के लिए और व्यवसाय के रूप में पत्रकारिता पूरी तरह से स्थापित हो चुकी है। अब इसे कोई प्रकाशक छिपाता भी नहीं है। व्यवसाय के लिए की जाने वाली पत्रकारिता अब कुछ तेजी से सत्ता और व्यवसाय के हितों के लिए भी काम कर रही है। इस सच्चाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि मीडिया में पैसा है और मीडिया के माध्यम से पैसा कमाया जा सकता है।
अब मुद्दे की बात, भूपेश सरकार ने मीडिया की ताकत को समझा और वह भी खास शहर के पत्रकारों को रियायती दर में आवासीय जमीन उपलब्ध कराकर उन्हें साधने का प्रयास किया है। चूंकि, प्रेस की न्यूसेंस वेल्यू भी है। इस कारण, उसके जायज-नाजायज पहलुओं को नजरअंदाज किया है। एक मुहावरा है- ‘लम्बे के साथ छोटा भी पार हो जाता है’। हितग्राहियों में अनेक गैर पत्रकार भी हंै लेकिन वे परोक्ष रूप से कम-ज्यादा प्रमाण में ‘मीडिया’ के सहयोगी भी हैं।
भूपेश सरकार को छोटे व मध्यम टैबलायड पत्रकारिता करने वाले वंचित प्रकाशकों-पत्रकारों को भी उदारचित्त से रियायती भूमि उपलब्ध कराकर उदारता दिखानी चाहिए। इससे भविष्य में वे ‘ब्राडशीट’ अखबार निकाल सकते हैं।
मीडिया को उपलब्ध आवासीय जमीन के विकास के लिए 1.80 करोड़ देने की घोषणा की है, इसके लिए उन्हें साधुवाद। अब अपेक्षा पत्रकारों की यह भी कि पी.एम. आवास योजना अंतर्गत उन्हें मकान भी निर्मित कर उपकृत किया जावे।
चुटकी बजाकर नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा ?
डीयर बाबूलाल, डू यू नो, देश के लोकप्रिय गृहमंत्री ने राजधानी में पी.एम. मोदी की प्रशंसा में कहा कि देश में मोदी सरकार आई है, नक्सली घटनाओं में लगातार कमी आई है। उन्होंने छत्तीसगढ़ की जनता से अपील की है कि छत्तीसगढ़ में भी सरकार बदल दो, चुटकी में नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा। यह बात समझ में नहीं आई मित्र ? तुम क्या बोलते हो?
देखों चम्पक, सरकार बदल दो, चुटकी में नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा, यह बात अमित भाई ने मजाक में कही होगी। सच्चाई तो यह कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, नक्सलवाद का सफाया करने की जिम्मेदारी अंतिम रूप से केन्द्र सरकार की ही है। इसके मद्देनजर यह कि केन्द्रीय गृहमंत्री को अब शीघ्रातिशीघ्र छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद को जड़ से समाप्त करने तत्पर होना चाहिए।
नि:संदेह, मित्र नक्सली घटनाओं में कमी आयी है। इसमें छत्तीसगढ़ कांग्रेस की सरकार का भी योगदान है। पूर्व में भाजपा सरकार में प्रदेश के अनेक जिलों राजनांदगांव, जगदलपुर, कांकेर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर, सरगुजा, कोरिया, सूरजपूर, बलरामपुर, जशपुर, बस्तर जैसे जिलों में सिलसिलेवार घटित नक्सली घटनाओं ने जनता को आतंकित करके रखा हुआ था। जिसमें हजारों निर्दोष नागरिक, सुरक्षा कर्मी व पुलिस कर्मी शहीद होते रहे थे। सर्वाधिक कारूणिक तो वह नक्सली घटना जिसमें कांग्रेस के अनेक महारथी नेता नंदकुमार पटेल, विद्या भैया, महेन्द्र कर्मा, उदय मुदलियार इत्यादि शहीद हुवे, इसे भुलाया तो नहीं जा सकता। मृतकों के आश्रितों को करोड़ों की आर्थिक सहायता भी देनी पड़ी थी।
पूर्व की भाजपा सरकार में प्रदेश के बस्तर एवं दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों के विरूद्ध ‘सलवा जुडूम’ अभियान चलाया गया था। वहां राहत शिविर लगाये गए थे। उस अभियान में सैकड़ों नागरिकों की मौतें हुई थी। अब ऐसी दर्दनाक घटनाओं में विराम लगा है। किन्तु, छिटपुट नक्सली घटनाएं तो अभी भी घट रहीं हैं।
राजनीतिज्ञों पर ये दो लाईनें-
इस सादगी पे कौन न मरजाय एै खुदा,
लड़ते हैं मगर हाथ में तलवार भी नहीं।
– शहरवासी