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राजनीति और राजकारण में अन्तर है भाई…!

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एक जमाना था, जब ‘‘राजनीति’’ शब्द का प्रभाव था, आज उसका अभाव है। आज राजनीति शब्द अपने शब्द देह पर तो है ही, किन्तु उसका अर्थदेह बदल गया है। यूं तो शास्त्रों व उपनिषदों में लिखा गया है कि देह याने शरीर बदलता है, आत्मा नहीं बदलती। आज की ‘‘राजनीति’’ शब्द को यह शास्त्रीय सत्य लागू नहीं पड़ता। किसी भी प्रकार के सत्य से विमुख और विमुक्त होना, यह आज की कथित राजनीति का चरित्र है।
एक समय था, जब राजनीति का चलन था, आज राज करने की नीति याने राजकारण का चलन है, वैसे, अनेक राजनीति और राजकारण में कोई अन्तर नहीं मानतेे। खेल होता है राजकारण का और इसे कहा जाता है राजनीति। राजनीति और राजकारण के बीच बहुत ही पतली भेदरेखा है। पानी में रेखा खींचने जैसी।
यह राजकारण ही है कि चुनाव पूरी तरह से आज भी निष्पक्ष नहीं होते। हमें सुप्रीम कोर्ट का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने चुनाव को लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी माना और उसकी देखरेख में लगे व्यक्ति का चयन ढंग से हो। सुप्रीम कोर्ट ने उस खाली जगह जिसमें पी.एम. की सलाह पर राष्ट्रपति पिछले 70 सालों से चुनाव आयुक्त नियुक्त करते थे, उसमें परिवर्तन किया है, जिसमें अब पी.एम. के पूर्व अधिकार और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विपक्षी दल के नेता के बीच बांट दिया है। इसे निष्पक्ष चुनाव कराने की कवायद कह सकते हैं।
लेकिन, चुनाव निष्पक्ष कराने की गारंटी नहीं कह सकते। राजकारण में धर्म के मुद्दे चुनाव में चलते हैं। सरकारें मंदिर बना रहीं हैं, घाट बना रहीं है, मूर्तियां लगा रहीं है, पूजापाठ सीखा रहीं है। जनता तो सिर्फ टैक्स दे रही है, शायद इसी के लिए बची हैं और नासमझ जनता मंदिर व मूर्ति के चक्कर में अपनी आजादी न्यौछावर कर रही है, जेब खाली कर रही है।
देश की जनता ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के करिश्माई, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, साहस और संघर्ष को भी देखा है। उन्हें दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व और कठोर निर्णयों के लिए जाना जाता है। उस आयरन लेडी ने 1969 में बैंकों और तेल कम्पनियों का सरकारीकरण कर के देश के उद्योगपतियों को चुनौती दी थी। इंदिरा ने धर्मनिरपेक्षता व समानता के आधार पर भारत को विश्व में शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में स्थापित किया था। आर्थिक सुदृढ़ता के अभाव में भी परमाणु परीक्षण कर दुनिया को आभास कराया था कि भारत के वैज्ञानिक तकनीकी मामले में पीछे नहीं है। गौरतलब, यदि इंदिरा गांधी न होती तो क्या बांग्लादेश बन सकता था? क्या सिक्किम का भारत में विलय हो सकता था? खलिस्तान आंदोलन की कमर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर सैनिक हमला किए बिना तोड़ा जा सकता था? फिरकापरस्त ताकतों और साम्प्रदायिक हिंसा को समाप्त करने अथक संघर्ष किया था और देश की एकता व अखंडता की मजबूती के लिए अपना बलिदान दिया।
इधर, राजकारण का दृश्य यह है कि समाज में बढ़ती विचारहीनता ने अनैतिक जमातों के नेतृत्व हासिल करने में प्रभावी भूमिका निभाई और भारतीय राजनीति ने पूंजी के कदमों तले बिछने में शर्माना छोड़ दिया है। चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त अब खुलेआम होने लगी है। ‘पूंजी’ राजनीति के सिर चढक़र अपने खेल खेलने लगी है। खैर, मतदाताओं का निर्णय अपनी जगह है और राजनीति व कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ के खेल अपनी जगह है। किन्तु, इससे लोकतंत्र का चित्र ही बदल गया है।
राजनीति का कोना ‘नगर निगम’ है तो महत्वपूर्ण लेकिन दर्शन निराशाजनक
डीयर बाबूलाल, मेरा नालेज बढ़ा है, डेमो देखना चाहोगे? चम्पक ने कहा वाई नाट चम्पक, बताओ। दोस्त एक आम आदमी के लिए मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना उस क्षेत्र का पार्षद। क्योंकि, घर के आसपास अस्वच्छता है, मच्छरों ने नींद हराम कर दी है, नलों में पानी नहीं आ रहा है, सडक़ों में गढ्ढ़ों की भरमार है, तब ऐसी समस्याओं का निराकरण प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि वह पार्षद करेगा, जिसे आप ने चुनकर निगम में बिठाया है। आम जनता की जरूरतें जहां से पूरी होती हैं, वह है उसका नगर निगम। जिसके चुनाव की देश में चर्चा नहीं होती, जैसे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव की गुंज होती है, चम्पक ने कहा।
‘देर आयद-दुरस्त आयद’ चम्पक। लेकिन, तुम्हारे नालेज में वृद्धि करने के लिए कहना चाहुंगा कि देशभर के नगर निगम, जिसमें हमारा शहर भी शामिल है, भयानक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। लाखों-करोड़ों के बजट वाले नगर निगमों में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी चरम पर है। इससे आम लोग परेशान हैं। लेकिन, भ्रष्ट व रिश्वतखोरों को निगम में भरपूर संरक्षण मिलता है।
देखों मित्रों, नगर निगम जो जनता से सीधे जुडऩे वाली संस्था है, का जनप्रतिनिधि हो, अधिकारी हो, बाबू हो, हेल्थ इंस्पेक्टर हो, जूनियर इंजीनियर हो या आप की गली में कूड़ा उठाने वाला सफाई कर्मी। आम जनता से, ठेकेदारों से, खोमचे वालों से, रेहरी वालों से, सब्जी वालों से, अवैध निर्माण करने वालों से नगर निगम का अमला वसूली करने में ऊपर से नीचे तक लिप्त है। वार्ड पार्षद या जनप्रतिनिधि भी जन सेवा कम और ठेकेदारी में व्यस्त रहते हैं।
विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यहां विपक्ष याने भाजपा के विरोध ने हंगामा बरपाया है। कुंभकरणीय नींद में सोया विपक्ष अब एकाएक आक्रमक हुआ है। निगम का शासक भी राजनैतिक मौसम में विधायक डॉ. रमन सिंह को घेरने की कवायद कर रहा है। पक्ष-विपक्ष में दिखाई दे रहे तेवर फिलहाल तो पार्टी टिकट हासिल करने को लेकर है। लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी है, राजनैतिक दलों को, फिर वह शासन के हो या विपक्ष के, अपने पार्षदों पर नकेल कसना, प्रशासन को सक्रिय करना और उन पर दबाव बनाकर अपने क्षेत्र का विकास करवाना।
रमन-राज में स्मार्टसिटी होने की बात सुनी थी। जिस तरह से, तेजी से शहर का विकास हुआ था, उससे ऐसा लग भी रहा था। किन्तु अब इसमें पानी ही फिर गया है। आधे-अधूरे गुणवत्ताहीन काम, सी.एम. की घोषणाओं में भी हीलहवाला, जीर्णशीर्ण गढ्ढेनुमा सडक़ें, मेन्टेनस का अभाव के चित्र निराशाजनक हैं।
बेरोजगारों के श्रमदान से बेरोजगारी की दर घटी, राजनीति में सभी का टाईअप हो जाता है
जिस प्रकार, अनेक राजनीतिज्ञों में से सत्य और चरित्र ने निवृति ले ली है। उसी प्रकार आजादी के सात दशकों के बाद व्यापार-रोजगार ने भी देश के युवा जगत में से निवृति ले ली है। हाल का माहौल यह है कि बेरोजगार युवकों को कई आत्मनिर्भर नेताओं के द्वारा उन्हें आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी जा रही हैं। जो कुछ न दे सके, ऐसी पुवर कन्डीशन में हैं। मजबूती के भी कई प्रकार होते हैं। कभी तो उधार ली हुई आत्मनिर्भरता भी अपनी उदार आत्मनिर्भरता बताते हैं।
यह तो अच्छा है कि कई युवा शुभचिन्तक नेताओं ने, शिक्षित बेरोजगारों को अपनी पार्टी में छोटा-मोटा एपाइन्ट कर रहे हैं। बेरोजगारों ने भी श्रमदान देना शुरू कर दिया है। इस कारण, देश में बेरोजगारी की दर फिलहाल घटने लगी है। आगामी दो चुनावों तक ऐसा सिनेरियां देखने को मिलेगा। कई युवा भाजपा में प्रवेश करेंगे तो कई युवा कांग्रेस में प्रवेश करेंगे। राजनीति में एक ऐसा चुंबकीय आकर्षण होता है, जो बेरोजगारों को अपनी ओर खींचता है। राजनीति में न हींग लगती है, न ही फिटकरी और ऊपर से रंग चोखा आने की गारंटी तो साथ होती ही है। राजनीति चाहे सत्तापक्ष की जाए या विपक्ष की, आजकल की प्रचलित परंपरा में इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। ऊपर से लेकर नीचे तक विभिन्न राजनीतिक दलों के अनुयायी इन दिनों ‘सेटिंंग’ करते हुवे दोनों हाथों में लड्डू लिए घुमते हैं। सभी का टाईअप हो जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी : कृष्ण से आत्मीयता बढ़ाने का पर्व संपन्न
कहते हैं, जब जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है, तब भगवान स्वयं अवतार लेकर आते हैं। वे अधर्म का नाश कर धर्म पर विजय प्राप्त करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार ईश्वर के कुल 10 अवतार हैं। जिसमें श्रीकृष्ण भगवान के आठवें अवतार हंै। हाल ही, सावन बदी की अष्टमी को हमने श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई। परन्तु, उनका जन्म किस साल में, किस तारिख में हुआ ? क्या आप जानते हैं?
आज के आधुनिक विज्ञान ने श्रीकृष्ण के मनुष्य अवतार के सबूत-प्रमाण प्राप्त करने में बहुत रिसर्च किया है। जिसके ई. संवत् अनुसार श्रीकृष्ण की जन्मतिथि के अनुसार रिवर्स क लैन्डर तैयार किया। उसको देखा-समझा और श्रीकृष्ण के जन्म के प्रमाण मिल चुके हैं। भारत में पूना स्थित भंडारकर ओरियेन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट और ब्रिटेन के एक रिसर्च सेन्टर के मतानुसार ई. संवत् 3112 पूर्व 27 जुलाई को श्रीकृष्ण के जन्म होने के प्रमाण मिले हैं। इस बात का ब्रिटेन के बर्मीगहम में रहने वाले कार्डियोलाजिस्ट और एस्ट्रालाजर डॉ. मनीष पंडित ने भी समर्थन कि या है। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके जन्म के 36 सालों बाद उन्होंने ई.सं. 3067 के पूर्व महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने सारथी की भूमिका भजी थी। इस बात का प्रमाण उस समय के कुरूक्षेत्र, हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान में दिल्ली) में मिल चुके हैं। इसके अलावा, 3000 साल पहले पानी में डूब चुकी सोने की द्वारका नगरी के अवशेष भी मिल चुके हैं। उस समय, चलन में रही करैंसी और स्वर्ण मोहरे पर भी श्रीकृष्ण के चित्र बने हुवे हैं।
कृष्ण की भक्ति और कृष्ण के भक्तों का साथ 3000 वर्ष पहले का है। आज पूरे विश्व में 8 अरब 37 करोड़ से भी अधिक कृष्ण के भक्त हैं। जिसमें भारतीय मूल के ही नहीं, विदेशी भक्तों का भी समावेश होता है। कृष्ण की तमाम लीलाओं के पीछे सुनिश्चित कारण थे। उनके प्रत्येक लीलाओं में एक संदेश और बोध दिया हुआ है।
कृष्ण भक्तों का मानना है कि उनके द्वारा कहे गए गीता के सार में संसार के तमाम प्रश्रों का हल दिया हुआ है। जो सदियों से सिद्ध है और आने वाले समय में भी रहेंगे। श्रीकृष्ण के विषय में उनके अद्वितीय कार्यो और माया के बाबत जितना समझें उतना कम है।
निदा फाजली का शेर है-
मुझे मालूम है चारों तरफ, जो ये तबाही
हुकुमत में सियासत के तमाशें की गवाही है।
– शहरवासीराजनीति और राजकारण में अन्तर है भाई…!
एक जमाना था, जब ‘‘राजनीति’’ शब्द का प्रभाव था, आज उसका अभाव है। आज राजनीति शब्द अपने शब्द देह पर तो है ही, किन्तु उसका अर्थदेह बदल गया है। यूं तो शास्त्रों व उपनिषदों में लिखा गया है कि देह याने शरीर बदलता है, आत्मा नहीं बदलती। आज की ‘‘राजनीति’’ शब्द को यह शास्त्रीय सत्य लागू नहीं पड़ता। किसी भी प्रकार के सत्य से विमुख और विमुक्त होना, यह आज की कथित राजनीति का चरित्र है।
एक समय था, जब राजनीति का चलन था, आज राज करने की नीति याने राजकारण का चलन है, वैसे, अनेक राजनीति और राजकारण में कोई अन्तर नहीं मानतेे। खेल होता है राजकारण का और इसे कहा जाता है राजनीति। राजनीति और राजकारण के बीच बहुत ही पतली भेदरेखा है। पानी में रेखा खींचने जैसी।
यह राजकारण ही है कि चुनाव पूरी तरह से आज भी निष्पक्ष नहीं होते। हमें सुप्रीम कोर्ट का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने चुनाव को लोकतंत्र की रीढ़ की हड्डी माना और उसकी देखरेख में लगे व्यक्ति का चयन ढंग से हो। सुप्रीम कोर्ट ने उस खाली जगह जिसमें पी.एम. की सलाह पर राष्ट्रपति पिछले 70 सालों से चुनाव आयुक्त नियुक्त करते थे, उसमें परिवर्तन किया है, जिसमें अब पी.एम. के पूर्व अधिकार और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विपक्षी दल के नेता के बीच बांट दिया है। इसे निष्पक्ष चुनाव कराने की कवायद कह सकते हैं।
लेकिन, चुनाव निष्पक्ष कराने की गारंटी नहीं कह सकते। राजकारण में धर्म के मुद्दे चुनाव में चलते हैं। सरकारें मंदिर बना रहीं हैं, घाट बना रहीं है, मूर्तियां लगा रहीं है, पूजापाठ सीखा रहीं है। जनता तो सिर्फ टैक्स दे रही है, शायद इसी के लिए बची हैं और नासमझ जनता मंदिर व मूर्ति के चक्कर में अपनी आजादी न्यौछावर कर रही है, जेब खाली कर रही है।
देश की जनता ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के करिश्माई, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, साहस और संघर्ष को भी देखा है। उन्हें दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व और कठोर निर्णयों के लिए जाना जाता है। उस आयरन लेडी ने 1969 में बैंकों और तेल कम्पनियों का सरकारीकरण कर के देश के उद्योगपतियों को चुनौती दी थी। इंदिरा ने धर्मनिरपेक्षता व समानता के आधार पर भारत को विश्व में शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में स्थापित किया था। आर्थिक सुदृढ़ता के अभाव में भी परमाणु परीक्षण कर दुनिया को आभास कराया था कि भारत के वैज्ञानिक तकनीकी मामले में पीछे नहीं है। गौरतलब, यदि इंदिरा गांधी न होती तो क्या बांग्लादेश बन सकता था? क्या सिक्किम का भारत में विलय हो सकता था? खलिस्तान आंदोलन की कमर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर सैनिक हमला किए बिना तोड़ा जा सकता था? फिरकापरस्त ताकतों और साम्प्रदायिक हिंसा को समाप्त करने अथक संघर्ष किया था और देश की एकता व अखंडता की मजबूती के लिए अपना बलिदान दिया।
इधर, राजकारण का दृश्य यह है कि समाज में बढ़ती विचारहीनता ने अनैतिक जमातों के नेतृत्व हासिल करने में प्रभावी भूमिका निभाई और भारतीय राजनीति ने पूंजी के कदमों तले बिछने में शर्माना छोड़ दिया है। चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त अब खुलेआम होने लगी है। ‘पूंजी’ राजनीति के सिर चढक़र अपने खेल खेलने लगी है। खैर, मतदाताओं का निर्णय अपनी जगह है और राजनीति व कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ के खेल अपनी जगह है। किन्तु, इससे लोकतंत्र का चित्र ही बदल गया है।
*राजनीति का कोना ‘नगर निगम’ है तो महत्वपूर्ण लेकिन दर्शन निराशाजनक*
डीयर बाबूलाल, मेरा नालेज बढ़ा है, डेमो देखना चाहोगे? चम्पक ने कहा वाई नाट चम्पक, बताओ। दोस्त एक आम आदमी के लिए मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना उस क्षेत्र का पार्षद। क्योंकि, घर के आसपास अस्वच्छता है, मच्छरों ने नींद हराम कर दी है, नलों में पानी नहीं आ रहा है, सडक़ों में गढ्ढ़ों की भरमार है, तब ऐसी समस्याओं का निराकरण प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि वह पार्षद करेगा, जिसे आप ने चुनकर निगम में बिठाया है। आम जनता की जरूरतें जहां से पूरी होती हैं, वह है उसका नगर निगम। जिसके चुनाव की देश में चर्चा नहीं होती, जैसे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव की गुंज होती है, चम्पक ने कहा।
‘देर आयद-दुरस्त आयद’ चम्पक। लेकिन, तुम्हारे नालेज में वृद्धि करने के लिए कहना चाहुंगा कि देशभर के नगर निगम, जिसमें हमारा शहर भी शामिल है, भयानक भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। लाखों-करोड़ों के बजट वाले नगर निगमों में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी चरम पर है। इससे आम लोग परेशान हैं। लेकिन, भ्रष्ट व रिश्वतखोरों को निगम में भरपूर संरक्षण मिलता है।
देखों मित्रों, नगर निगम जो जनता से सीधे जुडऩे वाली संस्था है, का जनप्रतिनिधि हो, अधिकारी हो, बाबू हो, हेल्थ इंस्पेक्टर हो, जूनियर इंजीनियर हो या आप की गली में कूड़ा उठाने वाला सफाई कर्मी। आम जनता से, ठेकेदारों से, खोमचे वालों से, रेहरी वालों से, सब्जी वालों से, अवैध निर्माण करने वालों से नगर निगम का अमला वसूली करने में ऊपर से नीचे तक लिप्त है। वार्ड पार्षद या जनप्रतिनिधि भी जन सेवा कम और ठेकेदारी में व्यस्त रहते हैं।
विधानसभा चुनाव के मद्देनजर यहां विपक्ष याने भाजपा के विरोध ने हंगामा बरपाया है। कुंभकरणीय नींद में सोया विपक्ष अब एकाएक आक्रमक हुआ है। निगम का शासक भी राजनैतिक मौसम में विधायक डॉ. रमन सिंह को घेरने की कवायद कर रहा है। पक्ष-विपक्ष में दिखाई दे रहे तेवर फिलहाल तो पार्टी टिकट हासिल करने को लेकर है। लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी है, राजनैतिक दलों को, फिर वह शासन के हो या विपक्ष के, अपने पार्षदों पर नकेल कसना, प्रशासन को सक्रिय करना और उन पर दबाव बनाकर अपने क्षेत्र का विकास करवाना।
रमन-राज में स्मार्टसिटी होने की बात सुनी थी। जिस तरह से, तेजी से शहर का विकास हुआ था, उससे ऐसा लग भी रहा था। किन्तु अब इसमें पानी ही फिर गया है। आधे-अधूरे गुणवत्ताहीन काम, सी.एम. की घोषणाओं में भी हीलहवाला, जीर्णशीर्ण गढ्ढेनुमा सडक़ें, मेन्टेनस का अभाव के चित्र निराशाजनक हैं।
बेरोजगारों के श्रमदान से बेरोजगारी की दर घटी, राजनीति में सभी का टाईअप हो जाता है
जिस प्रकार, अनेक राजनीतिज्ञों में से सत्य और चरित्र ने निवृति ले ली है। उसी प्रकार आजादी के सात दशकों के बाद व्यापार-रोजगार ने भी देश के युवा जगत में से निवृति ले ली है। हाल का माहौल यह है कि बेरोजगार युवकों को कई आत्मनिर्भर नेताओं के द्वारा उन्हें आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी जा रही हैं। जो कुछ न दे सके, ऐसी पुवर कन्डीशन में हैं। मजबूती के भी कई प्रकार होते हैं। कभी तो उधार ली हुई आत्मनिर्भरता भी अपनी उदार आत्मनिर्भरता बताते हैं।
यह तो अच्छा है कि कई युवा शुभचिन्तक नेताओं ने, शिक्षित बेरोजगारों को अपनी पार्टी में छोटा-मोटा एपाइन्ट कर रहे हैं। बेरोजगारों ने भी श्रमदान देना शुरू कर दिया है। इस कारण, देश में बेरोजगारी की दर फिलहाल घटने लगी है। आगामी दो चुनावों तक ऐसा सिनेरियां देखने को मिलेगा। कई युवा भाजपा में प्रवेश करेंगे तो कई युवा कांग्रेस में प्रवेश करेंगे। राजनीति में एक ऐसा चुंबकीय आकर्षण होता है, जो बेरोजगारों को अपनी ओर खींचता है। राजनीति में न हींग लगती है, न ही फिटकरी और ऊपर से रंग चोखा आने की गारंटी तो साथ होती ही है। राजनीति चाहे सत्तापक्ष की जाए या विपक्ष की, आजकल की प्रचलित परंपरा में इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। ऊपर से लेकर नीचे तक विभिन्न राजनीतिक दलों के अनुयायी इन दिनों ‘सेटिंंग’ करते हुवे दोनों हाथों में लड्डू लिए घुमते हैं। सभी का टाईअप हो जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी : कृष्ण से आत्मीयता बढ़ाने का पर्व संपन्न
कहते हैं, जब जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है, तब भगवान स्वयं अवतार लेकर आते हैं। वे अधर्म का नाश कर धर्म पर विजय प्राप्त करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार ईश्वर के कुल 10 अवतार हैं। जिसमें श्रीकृष्ण भगवान के आठवें अवतार हंै। हाल ही, सावन बदी की अष्टमी को हमने श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई। परन्तु, उनका जन्म किस साल में, किस तारिख में हुआ ? क्या आप जानते हैं?
आज के आधुनिक विज्ञान ने श्रीकृष्ण के मनुष्य अवतार के सबूत-प्रमाण प्राप्त करने में बहुत रिसर्च किया है। जिसके ई. संवत् अनुसार श्रीकृष्ण की जन्मतिथि के अनुसार रिवर्स क लैन्डर तैयार किया। उसको देखा-समझा और श्रीकृष्ण के जन्म के प्रमाण मिल चुके हैं। भारत में पूना स्थित भंडारकर ओरियेन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट और ब्रिटेन के एक रिसर्च सेन्टर के मतानुसार ई. संवत् 3112 पूर्व 27 जुलाई को श्रीकृष्ण के जन्म होने के प्रमाण मिले हैं। इस बात का ब्रिटेन के बर्मीगहम में रहने वाले कार्डियोलाजिस्ट और एस्ट्रालाजर डॉ. मनीष पंडित ने भी समर्थन कि या है। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके जन्म के 36 सालों बाद उन्होंने ई.सं. 3067 के पूर्व महाभारत के युद्ध में कृष्ण ने सारथी की भूमिका भजी थी। इस बात का प्रमाण उस समय के कुरूक्षेत्र, हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान में दिल्ली) में मिल चुके हैं। इसके अलावा, 3000 साल पहले पानी में डूब चुकी सोने की द्वारका नगरी के अवशेष भी मिल चुके हैं। उस समय, चलन में रही करैंसी और स्वर्ण मोहरे पर भी श्रीकृष्ण के चित्र बने हुवे हैं।
कृष्ण की भक्ति और कृष्ण के भक्तों का साथ 3000 वर्ष पहले का है। आज पूरे विश्व में 8 अरब 37 करोड़ से भी अधिक कृष्ण के भक्त हैं। जिसमें भारतीय मूल के ही नहीं, विदेशी भक्तों का भी समावेश होता है। कृष्ण की तमाम लीलाओं के पीछे सुनिश्चित कारण थे। उनके प्रत्येक लीलाओं में एक संदेश और बोध दिया हुआ है।
कृष्ण भक्तों का मानना है कि उनके द्वारा कहे गए गीता के सार में संसार के तमाम प्रश्रों का हल दिया हुआ है। जो सदियों से सिद्ध है और आने वाले समय में भी रहेंगे। श्रीकृष्ण के विषय में उनके अद्वितीय कार्यो और माया के बाबत जितना समझें उतना कम है।
निदा फाजली का शेर है-
मुझे मालूम है चारों तरफ, जो ये तबाही
हुकुमत में सियासत के तमाशें की गवाही है।
*- शहरवासी*

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