डियर एहतियात तौर पर देश के विभिन्न राज्यों में 144 वीं कलम का उपयोग शुरू हो गया है। मौत के भय से समझदार लोग ‘डिस्टेंस’ बनाकर, मास्क लगाकर चल रहे हैं। लेकिन, चम्पक 144 वीं कलम का उपयोग करना और 144 वीं कलम का सहारा लेना, इसमें बहुत बड़ा फर्क है। 144 वीं कलम का लोगों के स्वास्थ्य और सुविधाओं का ख्याल करने उपयोग होता है, किंतु इस कलम का जब सहारा लिया जाता है या फिर इसकी शरणागति स्वीकार की जाती है, तब केवल एकमात्र सत्ता के स्वास्थ्य और सुविधाओं का ख्याल रखा जाता है। सत्ता के स्वास्थ्य बाबत की चिंता करने वालों का एकमात्र फार्मूला होता है, उनका महामंत्र होता है ‘144 वीं कलम शरणम् गच्छामि’…।
फिलहाल टीवी न्यूज़ चैनल देखो, धार्मिक प्रवचन सुनो या फिर अखबार पढ़ो या फिर कहीं कोई बात चल रही हो, इन सबके बीच में ‘कोरोना’ केंद्र में होता है। कोरोना का वायरस वायरल हो रहा है, तब 144 वीं कलम का सदुपयोग भी हो रहा है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।
क्या बात है बाबूलाल? क्या कहना चाहते हो? तो सुनो चंपक, 144वीं कलम का उपयोग केवल जनता के लिए ही किया जा रहा है? यह कलम सत्ता प्राप्ति की खुशियां मनाने वाले नेताओं को, खरीद-फरोख्त करने वाले, बिकने वाले टोलिए, जिनमें सांसदों या विधायकों का या फिर कनिका कपूर जैसी सिंगर की महफिल का मजा ले रहे एमपी, मिनिस्टर, एक्स सीएम इनमें से किसी को भी 144 वीं कलम न आड़े आई और न लागू पड़ी। क्या ये सभी महानुभाव सेनिटराइज्ड थे? कई नेताओं में नेता से अधिक पॉलिटिशियन की इमेज और एनर्जी ज्यादा प्रमाण में कार्यशील रहते देखी जा सकती है। यह तो उनके विचार और व्यवहार से भी पता लग जाता है। समय प्राकृतिक या कृत्रिम महामारी का हो सकता है या फिर राजकीय महामारी का हो, चंद नेताओं को छोड़ दें तो अधिकांश राजनीतिज्ञों को कोरोना जैसी महामारी कोई असर नहीं करती।
वो इसलिए कि महामारी को रोकने की उन्हें तनिक भी चिंता नहीं होती। राजनीति की अशुचिता नीति के शास्त्र में नेता और राजनीतिज्ञ के बीच का अंतर यह है कि नेता हमेशा चिंता युक्त होता है और राजनीतिक पूर्णकालिक चिंतामुक्त होते हैं। बतौर एग्जांपल, जिस संध्या नरेंद्र भाई ने कोरोना वायरस के संदर्भ में एहतियाती सावधानी रखने जनता से अपील की थी कि आज से आगामी अनेक दिनों तक किसी को भी काम से बाहर निकलना नहीं और अनिवार्य परिस्थितियों में ही निकलना है। इसी के साथ एक दूसरे से 10 फीट का अंतर रखना है। इस अपील के बाद के दिनों में मध्यप्रदेश के कई सत्ताप्रेमी भाजपा नेताओं ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और खुशियों का इजहार डांस करके किया। इस प्रकार इन जनप्रतिनिधियों, राजनीतिज्ञों ने प्रधानमंत्री की अपील का खुलेआम चीरहरण कर डाला था। पीएम से पूछे बगैर जो पानी भी पीने से संकोच करते हैं, ऐसे लोग विवेक का त्याग करके सत्ता प्राप्ति के उन्माद में झूमने लगे थे, तब सामान्य आम जनता को यह असामान्य विचार आ सकता है कि पीएम का अपमान करने का असीमित अधिकार शायद कई भाजपा नेताओं ने प्राप्त कर लिया है। सयाने लोग कहते हैं कि उत्साह चाहे जितना भी शक्तिशाली हो, किंतु वह अपनी मर्यादा, अपने धर्म को कभी नहीं भूलता।
घायल की गत घायल जाने
प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात कही। निवेदन करते हुए कहा- लॉकडाउन आप लोगों की जान बचाने के लिए है। घर पर ही रहें। लोग लॉकडाउन के नियमों को तोड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री की इमोशनल अपील का अब कितना असर होता है? यह देखना है। स्थिति को कोरोना के फैलाव ने अति गंभीर बना दिया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यह आपदा प्राकृतिक है या मानव सर्जित? यह तो समय बताएगा। किंतु घर बैठे-बैठे लोग मानसिक व आर्थिक रूप से बड़े कष्ट को झेल रहे हैं। सर्वाधिक खराब स्थिति मध्यमवर्गीय परिवारों की है। उन परिवारों को भी इस आपातकाल में मदद की जरूरत है, इसे न सरकार समझना चाहती है और न ही धनाढ्य संपन्न वर्ग। सम्मानजनक जीवन बिताने सदैव संघर्षरत मध्यम परिवार बाबत शासकों के लिए यही कहा जा सकता है-
जाके पैर न फटी बिंवाई,
वो क्या जाने पीर पराई?
और मध्यम श्रेणी के परिवारों बाबत यह कि-
घायल की गत घायल जानें।।
जिधर देखो, वहां समस्या ही समस्या
अभी-अभी एक नेता मिले। शहरवासी ने पूछां-नोटबंदी के समय से चली आ रही है मंदी एक खाई की तरह और गहरी और चौड़ी होती जा रही है। महंगाई की समस्या भी वक्र होती जा रही है। कोरोना पूरी दुनिया का हेडेक बना है और यह हेडेक एनासीन या पैरासिटामाल से दूर होना नहीं है। यह अभी बहुत लंबे समय तक देशवासियों को रुलाएगा। 130 करोड़ जनता का टेस्ट करना भी संभव नहीं है।
नेता जी बड़ी सहजता से बोले- हमें तो ऐसा कुछ नहीं लग रहा है, किंतु कई लोग हाल ही इस बाबत की बातें और शिकायतें कर रहे हैं। हमें तो यह समझ में नहीं आता कि लोगों को अखबार और टीवी न्यूज देखने के सिवाय कोई कामधंधा है कि नहीं? पेपर पढऩा, टीवी देखना और मोबाइल पास रखना ही बंद कर दें, किसी को भी कोई समस्या जैसा कुछ लगेगा ही नहीं। अधिकांश लोगों को समस्या का व्यसन लग गया है। इसके बावजूद हमको समस्या के छोटे-मोटे अवशेष भी देखने को मिलेंगे तो आगामी दिनों में समस्या मुक्त भारत की मुहिम जरूर से उठाएंगे, ठीक है।
नेताजी की बातें सुनकर खून तो खौला। फिर भी दिमाग को ठंडा रख उतनी ही सहजता से पूछा-नेताजी समस्या को ढूंढना पड़े ऐसा नहीं है, जहां भी आप नजर दौड़ाएंगे, वहां समस्या ही समस्या दिखाई देगी। नेताजी खिसियानी हंसी हंसते हुए बोले-चलो देखते हैं।
खेलगडिय़ा योजना का बेड़ागर्क ?
चंपक तुझे याद है। हम जब स्कूल में पढ़ते थे, तब हाकी के अलावा अपने मोहल्ले आजाद चौक में गिल्ली डंडा, बांटी, भौंरा जैसे खेल खेल कर शाम का समय, छुट्टियों के दिन बिताते थे। अब के लडक़े तो इन खेलों का नाम भी नहीं जानते। खुले आसमान के नीचे धूल माटी में खेलना तो उनके लिए इनफिरियरटी कांप्लेक्स जैसा है। वाकई बाबूलाल अब तो ये सारे खेल इतिहास हो गए हैं, लेकिन केंद्र की मोदी सरकार ने स्कूली बच्चों का खेल के प्रति रूझान बढ़े, इसके लिए खेल गढिय़ा योजना शुरू की है। केंद्र ने प्रत्येक राज्यों को योजना अंतर्गत करोड़ों रूपए आबंटित किए हैं। वह तो मैं जानता हूं चंपक, लेकिन तुम्हें बता दूं, दिल्ली से चला रुपए अभी भी गांवों तक पहुंचते-पहुंचते 20 पैसे हो जाता है। अपने जिले में तो ऐसा ही हुआ है। यहां भ्रष्टाचार को अंजाम देने सहकारी भावना का योगदान जबरदस्त है। कहते हैं ना ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।’ यहां भी ऐसा ही है। एक सप्लायर ने शिक्षा मिशन वाले का मोटा कमीशन तय किया। फिर स्कूलों के हेडमास्टरों-प्राचार्य को लालच दी और आधी कीमत से भी कम घटिया खेलकूद का सामान सप्लाई कर पूरे पैसे वसूल कर लिए। लेकिन बाबूलाल कमीशन का एक हिस्सा तो शाला स्तर पर गठित समिति के सदस्यों तक भी पहुंचा होगा, तभी तो खेल के सामानों का भौतिक सत्यापन भी हुआ होगा।
कोरोना का खौफ शहर से ज्यादा गांवों में!
कोरोना वायरस के खतरे को लेकर वैसे तो पूरा विश्व खौफजदा है। भारत में भी इससे बचने के कई तरीके अपनाए जा रहे हैं। पूरे देश को लॉक डाऊन कर दिया गया है। लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग से बचने की नसीहत देने के साथ ही तमाम तरह के एहतियात बरतने कहा जा रहा है। इन सबके बीच शहर में जिला प्रशासन, पुलिस प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग की टीम भी लगातार सक्रियता से जुटी हुई है। पुलिस के जवान चौक-चौराहों पर नजर रखे हुए हैं। बेवजह सडक़ों पर घूमने वालों को रोका जा रहा है, किंतु लोगों में अभी भी इस महामारी को लेकर गंभीरता नजर नहीं आ रही है।
शहर में सोशल डिस्टेंसिंग से बचाने के लिए लोगों को अपने-अपने घरों में रहने के लिए पुलिस को कड़ाई बरतनी पड़ रही है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना से बचने के लिए लोग स्वस्फूर्त जागरूकता दिखा रहे हैं। महामारी के प्रकोप से बचने के लिए गांवों तक पहुंचने वाले रास्तों को चारों दिशाओं से बंद कर दिया गया है। गांव से बाहर जाने और बाहर के लोगों को गांवों तक आने में प्रतिबंध लगाया गया है। इस नियम का उल्लंघन करने वालों पर पांच सौ से एक हजार रूपए तक जुर्माने का भी प्रावधान भी किया गया है। गांवों में लोग शासन-प्रशासन के निर्देशों का स्वस्फूर्त पालन कर रहे हैं, किंतु यह संस्कारधानी के लिए सोचनीय बात है कि लोगों को अभी भी समझाना पड़ रहा है और लोग हैं कि पूरी ढिठाई से पेश आ रहे हैं। इससे ऐसा लगता है कि गांव वाले हम शहर वालों से ज्यादा समझदार हैं।
चंद लाइनों ने कुछ समझाने का प्रयास किया है-
कीचड़ है तो कमल है,
बात बहुत माकूल,
हम तो कीचड़ में फंसे,
कहां खिले वनफूल?
फूल-वुल अब कुछ नहीं,
कंटक ही अब पास,
खुशबू अब तो गुम हुई,
बची है केवल घास।।
– शहरवासी