- जय वल्लभ, जय-जय श्री वल्लभ
– दीपक बुद्धदेव –
शुद्धादैत् ब्रह्मवाद के प्रतिपादक एवं पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य महाप्रभु श्री मद् वल्लभाचार्य का जीवन दर्शन तथा उनके भगवन्परक सिद्धान्त मानव मात्र के लिए कल्याणकारी एवं जीवन को सही दिशा की ओर अग्रसर करने वाले हैं। उनका प्राकट्य भारत के सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। आचार्य श्री ने भारतीय तत्वचिन्तन की समन्वयात्मक समग्र दृष्टि प्रस्तुत की। उन्होंने भारतीय धर्म-साधना को नया आयाम दिया। महाप्रभुजी ने परम्परागत वैष्णव धर्म और कृष्णभक्ति की धारा को अभिनव चेतना प्रदान की।
युगदृष्टा महर्षि, युगसृष्टा महापुरूष, क्रान्तिकारी धर्माचार्य, दार्शनिक मनीषी श्रीमद् वल्लभाचार्य को पुष्टिमार्ग में साक्षात् वैश्वॉनर रूप और पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान श्री कृष्ण का वदनावतार माना जाता है। उनका प्राकट्य प्रभु श्री कृष्ण से बिछुड़े हुवे दैवी जीवों के उद्धार के लिए हुआ था। उन्होंने पुष्टिभक्ति मार्ग का प्रचार प्रसार करके जीवो को श्रेय पथ दिखलाया।
महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य के दैवी स्वरूप पर गुसांई जी श्री विट्ठलनाथ जी ने सौन्दर्य पद्य, श्री सर्वोत्तम स्तोत्र, श्री हरिरायजी ने श्री मद आचार्य चिन्तनम, श्री वल्लभाष्टक आदि रचनाएं की है। ऐसे अनेक भगवदियों में श्री गोपालदास ने श्री वल्लभाख्यान, श्री गदाधरदास ने सम्प्रदाय प्रदीप, श्री द्वारकेशजी ने मूलपुरूष एवं अष्टछापीय तथा अन्य वैष्णव साहित्यकारों कवियों ने अनेक पदों की रचना की है। फिर भी महाप्रभुजी का चरित्र ऐसा है कि कवि मन को तृप्ति ही नहीं मिलती।
हिन्दी के रससिद्ध सुकवि श्री मदन लाल जी जोशी शास्त्री ने ‘‘श्री वल्लभ दर्शन’’ काव्य का सृजन कर श्रीमद वल्लभाचार्य के चरित्र और चिन्तन को सरल, सरस वाड्मयी अभिव्यक्ति दी है। इस कृति में शास्त्री जी के तलस्पर्शी अध्ययन की झलक पद-पद पर मिलती है। दार्शनिक तत्व को प्रमाणिक किन्तु हृदयग्राही रूप में प्रस्तुत करने और पुष्टि के मर्म को लोकभाषा में लोकग्राह्य बनाने में उन्हें अद्भुत सफलता मिली है। आपने एक ही छन्द में महाप्रभुजी के प्रदेय को कितने प्रभावपूर्ण ढंग से रखा है। जिसकी वानगी यहां प्रस्तुत है।
‘‘कृपासाध्य परमोज्ज्वल पावन, पुष्टिमार्ग का कर निर्माण, लिया शरण में जिन जीवों को उनका किया आत्मकल्याण। मायावाद तिमिर हर जिनने किया प्रकट प्रभु-भक्ति प्रकाश चमक उठा तब पुुष्टिप्रभा से इस जगती का भाग्याकाश।’’
स्मरण रहे, पुष्टि मार्ग में दास्यभाव से की गई प्रभु सेवा को ही महान ‘‘धर्म’’ माना गया है। व्रजधन श्री गोपीजन वल्लभ श्री कृष्ण को ही वस्तुत: ‘‘अर्थ’’ प्रधान कहा गया है। पुष्टिजीव का सारा ‘‘काम’’ लोकासक्ति रहित हो जाता है। इसी को मोक्ष माना गया है। प्रभुसेवा में अपना मन जब तन्मय तल्लीन हो जाता है, तब होती है सिद्ध मानसी सेवा, जो श्रीकृष्ण प्रभु के अनुग्रह आधीन होती है। इसी को परा सेवा कहते हैं। जिसका स्थान सर्वोपरि माना गया है। तन से प्रभु की सेवा, धन का सेवा में विनियोग, प्रभु अनुकम्पा से ही ऐसी सेवा का संयोग प्राप्त होता है। इस ही तनुजा और वित्तजा सेवा कहते हैं। इससे हमारी अहंता-ममता दूर होती है और शुद्ध विवेक जागृत होता है। फिर धैर्य और आश्रय केवल सेव्य कृष्ण से ही प्राप्त होते हैं। प्रभु तो शरणागतवत्सल हैं। अहैतु की अपार प्रभु कृपा श्री वल्लभ दर्शन से ही प्राप्त होती है। वे जीव धन्य हैं, जिनके वल्लभीय आचार-विचार हैं। प्रभुसेवा से स्व अनुभूति का अनुपम उपहार प्राप्त होता है। जीव का परम धर्म यही है कि श्री कृष्ण में अनुराग हो। निज जीवन में प्रभु की सेवा का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए। पर ब्रहम् श्री कृष्ण महान परम तत्व हैं। ‘‘श्री कृष्ण: शरण मम’’ केवल यही एक मंत्र महान है।
श्री आचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य श्री कृष्णानन अवतार हैं। जगत के गोपी दैवी जीवों पर उनके अगणित उपकार हैं। वन्दनीय सदैव स्मरणीय जगद्गुरू-चरणों में शत्-शत् वंदन।
जय वल्लभ, जय-जय श्री वल्लभ।