शहर ग्रीन जोन में है। सुबह 7 से बजे से शाम 4 बजे तक घर से बाहर रहने की छूट है। लेकिन चंपा नहीं चाहती कि चंपक गैरजरूरी काम से घर से बाहर निकले। कोरोना लाकडाउन के इन 40 दिनों में चंपक परिवार के साथ ही आनंद-मस्ती में रहा। एक समय वह भी था, जब अवकाश के दिनों में भी पुरुष घर में नहीं रहते थे। फ्रेंड सर्किल में ही समय बिताते थे। कइयों को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि भविष्य में कोरोना रहे या ना रहे, अवकाश के दिनों में तो वह अब घर में ही शांतिपूर्वक रहेंगे। इसके अलावा भी कोरोना वायरस के कई पॉजिटिव साइड इफेक्ट हैं। इस महामारी के डर के कारण सडक़ों पर कोई एक-दूसरे के साथ हाथापाई करते नजर नहीं आते। न केवल भारत अपितु अन्य देशों में भी भारतीय संस्कृति का जलवा है। लोगबाग एक-दूसरे को कोरोना संक्रमण से बचने ‘नमस्ते’ कर रहे हैं। सबसे बढिय़ा यह कि फिजूल खर्ची टोटली बंद है। नो होटल, नो सिनेमा, नो अनावश्यक खरीदी, नो टूर, नो चाट-आइसक्रीम। इन सभी के खर्चों पर ब्रेक लग गया है। पर्यावरण सुधरा है। हवा शुद्ध है। धूल, शोर शराबा के प्रदूषण से मुक्ति मिली है। जहां शादियां हुईं, वह भी बहुत कम खर्चे में संपन्न हुई। इस कारण कहने को मन करता है कि इसका ‘क्रेडिट गोज टू कोरोना वायरस’।
लाकडाउन कोरोना से बचाएगा तो कोरोनामुक्त वैक्सीन ही करेगा
वैसे तो भाई इस दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं है, जो सर्वग्राही काल के मुख का ग्रास नहीं बनती। काल बहुत ही भयंकर है। जो कुछ भी दृश्यमान है, उनमें से किसी को भी काल छोड़ता नहीं है। काल का अजगर सभी को लील लेता है। वह महानतम जनों को भी नहीं छोड़ता। हमने कई ऐसे देखे हैं, जो नान लिकर, नान स्मोकर व नान टोबैको थे। शाकाहारी थे। अपनी हेल्थ को लेकर बहुत जागरूक थे, फिर भी उनमें से किसी को सिवियर अटैक आया, कैंसर हुआ और वे मृत्यु को प्राप्त हुए। एक सज्जन को जानता हूं, जो 100-100 साल तक निरोगी कैसे रहें, कैसे जीवित रहें, इस विषय पर उनका व्याख्यान होता था। 1994 के मार्च में न्यूयार्क के मेनहट्टन के अपार्टमेंट में उन डॉ. स्टुअर्ट बर्गर का मृतदेह मिला था। पी.एम. की रिपोर्ट में आया था कि ‘डॉक्टर को नींद में ही सिवियर अटैक आया था।’उस समय उनकी आयु केवल 40 साल की थी।
ऐसा भी होता है कि हम जिस रोग का धुमधाम से प्रचार करते हैं, वही रोग न जाने किस क्षण हमें नजरअंदाज कर देता है। तब वह हमारा भी जीवन अंदाज कर देता है। फिर वह छोटा हो या बड़ा हो, वह राजरोग हो या प्रजारोग हो या खास रोग हो या आम रोग हो, क्लास वन रोग हो या क्लास थ्री रोग, उसे नजरअंदाज कभी नहीं करना चाहिए। जिन्होंने भी ऐसे रोग को नजरअंदाज किया है, उन सभी का रोगने खात्मा किया है। वह रोग ही उनका किलर बन गया।
हम देख रहे हैं, पिछले कई दिनों से चाइना ने दुनिया के बाजार में एक महारोग को तैरता कर दिया है, जिसका नाम है कोरोना वायरस, जिसके स्पर्श मात्र से या फिर परोक्ष रूप से यह किसी को भी नजरअंदाज करने से कोरा नहीं छोड़ेगा। चेहरे पर मास्क लगाएं। सोशल फिजिकल-डिस्टेंस रखें। जहां जरूरी है, वहां क्वारन्टाइन में रहें। बार-बार हाथ धोएंं, तभी कोरोना आपसे दूर रहेगा। लाकडाउन थ्री के बाद भी कोरोना भाग जाएगा, ऐसा सोचना बड़ी भूल होगी। कोरोना का इलाज लाकडाऊन नहीं है। कोरोना का इलाज उसकी वैक्सीन है और उसकी वैक्सीन कब मिलेगी? इसका दावा कोई नहीं कर सकता।
राजस्व न्यायालयों में काम होगा?
एक फिलासफर ने कहा है कि न्याय से पृथक ज्ञान व कर्म विद्वता की श्रेणी में नहीं आता। एक अन्य विद्वान ने कहा है-न्याय का अतिरेक यह उच्चतम अन्याय है। न्याय में विलंब करना, यह भी एक अन्याय है।
डियर बाबूलाल दार्शनिकों के उक्त कथनों की वास्तविकता जमीनी स्तर पर बहुत ही कम देखने को मिलती है। इन बीते दो लाकडाऊनों के दौरान सरकारी दफ्तर पूर्णत: बंद रहे। ‘वर्क फ्राम होम’ भी समझ के बाहर इसलिए है कि उसमें जनता से सीधे जुड़े क्या काम हुए? उसकी जानकारी ही प्रकाश में नहीं आई। राज्य सरकार ने कहा है, लाकडाउन थ्री में दफ्तर खुलेंगे। राजस्व न्यायालयों में कामकाज शुरू होंगे। उसके बाद यह भी जिला स्तर पर समाचार आया कि एस.डी.एम. दफ्तर में भीतर से काम होगा। बाहर दरवाजे पर ताला लगा रहेगा। एक तो पहले से ही राजस्व न्यायालयों में विभिन्न मामलों की सुनवाई कछुआ गति से चल रही थी। कार्यों की अधिकता कहें या बोझ, सप्ताह में तीन दिनों तक चलने वाला राजस्व न्यायालय में अधिकांशत: तारीखें ही मिलती हैं। व्यवसाय को केन्द्र में रख अपने मुवक्किलों को न्याय दिलाने पहुंचने वाले वकीलों को तारीख लेकर वापस लौटना पड़ता है। ये तस्वीर तो लाकडाऊन के पहले की है। अब पीडि़तों में आशा जगी है कि जिन मामलों की सुनवाई पूर्णरूप से हो चुकी है, उन महीनों लंबित मामलों में आदेश पारित किए जाएं। इससे भी पेंडिंग प्रकरणों की संख्या में कुछ तो कमी आएगी।
प्रशासनिक अमला सर्वाधिक विश्वसनीय और महत्वपूर्ण माना जाता है। संकट की स्थिति में यही अमला जिले का सर्वेसर्वा होता है और सरकार भी यह मानती है कि प्रशासनिक अधिकारी के रूप में ये अमला उचित समय में उचित निर्णय लेगा।
पुलिस कप्तान के विभागीय एक्शन से शिकायतकर्ताओं को राहत मिलेगी?
पुलिस कप्तान अपने जिले के आंतरिक संगठनात्मक अनुविभागों में माह में क्रमश: लंबित प्रकरणों की समीक्षा करेंगे, इस खबर से बाबूलाल बहुत खुश था। समीक्षा पश्चात लंबित प्रकरणों के निराकरण की दिशा में निर्देश भी देंगे। इसके लिए उन्होंने समय सारिणी भी बनाई है। कप्तान ने फौजदारी प्रशासन में कसावट लाने उपनिरीक्षकों का होलसेल में तबादला करके अपनी दक्षता का परिचय दिया है। नि:संदेह पुलिस कप्तान ने चार्ज लेने के पूर्व जिले की वार्षिक फौजदारी रिपोर्ट का भी अध्ययन किया होगा। उसमें सभी मामलों की प्रकृति जान विश्लेषण भी किया होगा।
विकास अधोसंरचना का ही नहीं होता इसके समानांतर अवांछित विकास गुनाहों और अपराधों का भी होता है। वर्ष में कितने रेप केस, मर्डर केस, चोरी-ठगी सहित सडक़ हादसे व आत्महत्या से होने वाली मौतों के मामले दर्ज हुए? बढ़े अपराधों से भी आपराधिक विकास हो जाता है। शहर की संभ्रांत जनता को पुलिस कप्तान का यह कदम बहुत सुहाया है। समीक्षा उपरांत समय-सीमा में अपराधों से जुड़ी शिकायतों का निराकरण होता है या उसे लेकर पुलिस एक्शन में आती है तो जनता इसे अपनी किस्मत ही समझेगी। बाकी तो पुलिस से लीगल काम करवाना भी नाक में दम आने जैसा होता है। कभी-कभी चढ़ावे के बाद भी जूते-चप्पल घिस जाते हैं, किंतु काम नहीं होते। कप्तान के नियमानुसार कार्य से अनुकूल परिणाम क्या आते हैं? इसकी प्रतीक्षा रहेगी।
शराब तस्करी के रैकेट का भंडाफोड़ होगा?
डोंगरगढ़ क्षेत्र का शराब तस्करी कांड चर्चा में खास स्थान बना चुका है। महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश से सुनियोजित बड़ी मात्रा में अवैध शराब का छत्तीसगढ़ पहुंचना, यह साफ तौर पर बता गया है कि उसमें कांग्रेस के सत्ताधारी नेताओं का संरक्षण प्राप्त है। शायद इसीलिए ही पुलिस के शिकंजे में अपराधी नहीं पहुंचे हैं। युवा दक्ष पुलिस कप्तान से उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि वे इस शराब तस्करी के रैकेट का भंडाफोड़ करके ही रहेंगे।
मजदूर दिवस और मजदूरों की दुर्दशा
कहते हैं, मेहनत की रोटी का एक मधुर आनंद है। जो श्रम करता है, वह मधुर निद्रा का आनंद लेता है। बीता एक मई याने मजदूर दिवस हर साल श्रम का महत्व बताता है। ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ का अर्थ है कि दुनिया में जीना है तो काम करो प्यारे। लेकिन कहा यह भी जाता है कि सभी समय एक समान नहीं होता।
कोरोना के इस लंबे संकट में सर्वाधिक दु:खी कोई प्राणी है तो वह श्रमवीर मजदूर। जो चार पैसा कमाने मीलों दूर गया। आज उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। काम से वंचित भूखे-प्यासे अपने परिवार-बच्चों के साथ कोई पैदल मीलों रास्ता तय कर अपने गांव-घर पहुंच रहा है, जिनमें से कइयों ने दम भी तोड़ा होगा। किन्तु, कमजोरों की गणना नहीं होती। शहर की सीमा पर ही सैंकड़ों मजदूर ‘आसमान से गिरे तो खजूर में लटके’ जैसे हालात में फंसे असहाय हैं। उनके साथ न्याय करने कौन आएगा? ‘सख्त नियम भी कभी महान अन्याय साबित होता है।’
कोरोना संकट में मजदूर वर्ग की दुर्दशा पराकाष्ठा पर है। नतीजतन दु:खी मन से कहना पड़ता है कि सरकार को कैलेंडर से ‘मजदूर दिवस’ को ही हटा देना चाहिए।
साहिर लुधियानवी के फिल्मी नग्में की चंद लाइनें-
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से
जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दु:ख के बादल पिघलेंगे,
जब सुख का सागर छलकेगा
जब अंबर झूम के नाचेगा
जब धरती नग्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी।
बीतेंगे कभी तो दिन आखिर
ये भूख और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर
दौलत की इजारादारी के
जब ह्यएक अनोखी दुनिया की
बुनियाद उठायी जाएगी,
वो सुबह कभी तो आएगी।
– दीपक बुद्धदेव