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गुलामों और घोड़ों की तरह मुंह में पट्टा…

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ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले,
आस-निराश के दो रंगों से दुनिया तूने सजाई
नइया संग तूफान बनाया, मिलन के साथ जुदाई
जा देख लिया हरजाई, लूट गई मेरे प्यार की नगरी
अब तो नीर बहा ले, ओ दुनिया के रखवाले…
महल उदास और गलियां सूनी, चुप चुप हैं दीवारें
दिल क्या उजड़ा, दुनिया उजड़ी
रूठ गई हैं बहारें, हम जीवन कैसे गुजारें
ओ मंदिर गिरता, फिर बन जाता
दिल को कौन संभाले, ओ दुनिया के रखवाले…

चम्पक गाए जा रहा था और बाबूलाल व शहरवासी मंत्रमुग्ध हो गए थे। रफी की दर्द भरी आवाज में मिमिक्री करते हुए चम्पक का यह गाना बड़ा सामयिक था। शहर की जनता घरों में बंद है। सडक़ें सूनी हैं। दुकानें, फैक्ट्रियां बंद हैं। मंदिर बंद, इसके बावजूद शहर और जिले में कोरोना कैरियरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। रिश्वत के कीटाणु मल्टीपल होते हैं। इतनी तेजी से फैलते हैं कि दिमाग तक पहुंचने में देर नहीें लगाते। सावधान रहने वाले सलामत रहते हैं। ठीक ऐसे ही मित्रों कोरोना के कीटाणु मल्टीपल हैं, जो इतनी तेजी से फैल रहे हैं है कि हर एक व्यक्ति दूसरे से दूर होता जा रहा है। कोरोना राक्षस बेखौफ है। खौफजदा उसके अट्टहास ने कोरोना वारियरों को भी नर्वस कर दिया है। सभी को गुलामों और घोड़ों की तरह मुंह पर पट्टा बांधना अनिवार्य हो गया है। कोरोना वायरस कहां-कहां, किन-किन जगहों पर असर करेगा, इसकी तो पहले कल्पना ही नहीं थी। देखो न, फिल्म उद्योग कोमा में चला गया है। अब फिल्में आनलाइन प्लेटफार्म पर रिलीज होंगी। वैसे इसकी शुरूआत हो चुकी है। कोरोना राक्षस के भाई महंगाई की मुस्कान बड़ी डरावनी है। कृत्रिम अभाव का संकट पैदा कर अनेक गुना मुनाफा लेना आम बात है। पहले भयग्रस्त लोगों को अधिक दाम में मास्क, सेनिटाइजर खरीदना पड़ा। किराना आयटम्स 20 फीसदी महंगी हुई। नमक में कालाबाजरी हुई। सब्जियां महंगी हुईं। अब पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं, जिसके पीछे का कारण सरकार की खाली हो चुकी तिजोरी को भरना है। अब ट्रांसपोर्टिंग दस फीसदी महंगा हुआ और आगे ऐसे ही बढ़ता जाएगा।
देखो शहरवासी, महंगाई तो देश आजाद हुआ तभी से बढ़ रही है, किन्तु कोरोना तो किसी को कोरा नहीं छोड़ रहा। कोरोना वारियरों में डॉक्टर्स, नर्सेस, पुलिस तो उधर मंत्री, विधायक, अमीर-गरीब भी जाल में फंसते जा रहे हैं।
चम्पक ने चार लाइनें कही-
कोई हाथ भी न मिलाएगा
जो गले मिलोगे तपाक से
अब नए मिजाजों का शहर है
जरा फासले से मिला करो।

कोई हराम की खाता है तो कोई किसी को पसीना बहाकर भी भूखे सोना पड़ता है
भारत में सुपरफास्ट स्पीड से बढ़ रही आर्थिक मंदी सरकार, उद्योगपतियों, व्यापारियों, व्यवसायियों, नौकरीपेशा लोग, रेहाडिय़ों की जिंदगानियों को दुष्कर बना दिया है। मंदी के कारण की मीमांसा प्रत्येक विशेषज्ञ और प्रत्येक नेता अपनी-अपनी समझ और सुविधाओं के हिसाब से करते रहते हैं। मंदी का निराकरण करने सरकार सख्त कदम उठाते रहती है। कार उद्योग, निर्माण क्षेत्र, निर्यातकारों इत्यादि के अलावा प्रवासी मजदूरों, ग्रामीण गरीबजनों के लिए सरकारी खजाने खोल दिए हैं। आर्थिक संकट का सामना कर रही सरकार ने सांसदों की निधि को दो साल के लिए स्थगित कर दिया है। नरेंद्र भाई ने स्वयं और अन्यों के वेतन में 30 प्रतिशत की कटौती कर दी है। इसके बावजूद लोगों को, खासकर मध्यमवर्गीय और गरीबों को राहत नहीं मिल रही है। धनवानों की पूंजी कम हो रही है, किंतु गरीब तो भूखे मर रहे हैं और गरीबों सहित उनके बच्चों की अकाल मृत्यु हो रही है। इनकम टैक्स की दर कम होने से भारत के 70 फ़ीसदी लोगों को कोई फायदा नहीं है, क्योंकि उनको इनकम टैक्स तो भरना ही नहीं होता। राजनीतिज्ञ और धनवान अधिकांश हराम की खाते हैं, किंतु गरीब लोग तो पसीना बहाकर जीते हैं। मंदी के मार की जनता सहनशीलता की मूर्ति बन गई है।
सांसदों को इतनी सुख-सुविधाएं क्यों? पेंशन प्रथा पर पूर्ण विराम लगे
देश जब इकोनामी क्राइसेस में से गुजर रहा है, तब सांसदों को सरकार की ओर से विकास हेतु मिलने वाली निधि को दो साल के लिए स्थगित करने से फिलहाल थोड़ी राहत हो सकती है, किंतु समय का तकाजा है कि समाज सेवा, देश सेवा के नाम पर मतदाताओं से वोट मांगने वाले सांसदों को ढेर सारी सुख-सुविधाएं क्यों? किसलिए? पानी फ्री, बिजली फ्री, विमान-रेल यात्रा फ्री, आवास-भोजन रियायती दर पर, वेतन के अलावा टीए-डीए इत्यादि के अलावा सांसद नहीं रहने पर भी जीवन भर पेंशन का सुख प्रदान करना, यह विकासशील भारत के लिए उचित तो नहीं है। इसके एवज में अधिकांश सांसद न तो देश सेवा करते हैं, न समाज सेवा करते हैं। आजादी के बाद से चली आ रही इस पेंशन प्रथा को तो मोदी सरकार बंद कर सकती है, क्योंकि मोदी है तो सब मुमकिन है। आर्थिक संकट की घड़ी में प्राथमिक तौर पर सरकार को पेंशन खत्म करने अध्यादेश लाना चाहिए। यही सबसे बड़ी देश सेवा और जनसेवा मानी जाएगी।
देश की जनता को भी नेता या प्रत्याशियों के गुणदोष देखने के बदले सांसद या विधायक ने विकास के कौन-कौन से कार्य किए हैं? उसके अनुसार ही उनका मूल्यांकन करना चाहिए। देश के कई सांसद तो संसद में मौनी बाबा रहते हैं। अपने क्षेत्र की समस्याओं बाबत वह सरकार का ध्यान आकर्षण भी नहीं करते। कई सांसद तो फर्जी टीए-डीए बिल बनाकर पैसा ऐंठते हैं। कई सांसद तो चुनाव हारने के बाद सरकारी बंगला भी नहीं खाली करते। इसके लिए भी न्यायालय को दखलगिरी करनी पड़ती है।
देश की जनता सतत महंगाई की जानलेवा बीमारी से ग्रस्त है। बेरोजगारी के विनाशक बैक्टीरिया से पीडि़त हैं। देश की कुशलता और कौशल्य नाम की दोनों किडनी फेल हो गई है। गरीबी के घाव से देश का पौन हिस्सा पेनफूल है। वह जातिवाद के जलोदर में फंस गया है। कौमवाद कैंसर से पूरा देश ग्रसित है। इसकी जानकारी लेने ही पीएम नरेंद्र भाई ने सांसदों को अपने निर्वाचन क्षेत्रों में पदयात्रा करने कहा था। 2 अक्टूबर गांधी जयंती से सांसदों को अपने क्षेत्र में पदयात्रा करनी थी, किंतु किस सांसद ने ईमानदारी से इस कार्य को अंजाम दिया? सरकार को इस पर गहन चिंतन करना चाहिए? अखबारों में विज्ञप्ति के मार्फत अपनी एक्टिविटीज दर्शाना यह अधिकांश सांसदों की फितरत होती है। अगर सरकार इसी को उपलब्धि मान ले, तो यह अलग बात है। जनता की करों की राशि के भुगतान से देश चलता है। इस कारण जनता को अब निवृत्तमान सांसदों को पेंशन की मोटी राशि प्रदान करना, बिल्कुल ही डाइजेस्ट नहीं हो रहा है। विधायक, सांसद, राज्यसभा सदस्य जब जनता के हितों की बात करते हैं, तब अब के समय में सौ फीसदी बेमानी लगता है, क्योंकि इनकी पर्चेसेबल की इमेज समय-समय पर सामने आती रहती हैं।
शिक्षा क्षेत्र में अनिश्चितता के बादल
कोरोना संक्रमण काल में बच्चों, युवाओं की सुरक्षा और पढ़ाई पर प्रश्न चिन्ह लगा है। जैसे कि, इस पूरे साल भर में ही रहकर ऑनलाइन पढ़ाई होगी? या फिर कोरोना कंट्रोल होगा तो फिर क्या स्कूलें, कालेजेस खुलेंगे? स्कूल और कोचिंग संस्थानें भी बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा प्रदान कर रही हैं। ऑनलाइन पढ़ाई से बच्चे उब गए हैं। उनका कंसनट्रेशन भी गड़बड़ा जाता है। फिर उसके बाद लंबा चौड़ा ढेर सा होमवर्क भी अनिवार्य होता है। बच्चों को इस बात की भी चिंता है कि उनका टेस्ट, परीक्षा क्या ऑनलाइन होगी? या फिर स्कूलों में जाकर लिखित परीक्षा देनी होगी। ऐसे कई सवाल बच्चों के अलावा उनके पालकों और स्कूल संचालकों के जेहन में उठे हैं और अभी शिक्षा जगत में अनिश्चितता के बादल छाए हुए हैं।
कोरोना की विभीषिका को देखते हुए केंद्र सरकार ने जिन विषयों के टेस्ट होने बाकी थे, उन टेस्टों को भी रद्द कर दिया है। जुलाई माह में कोई परीक्षाएं नहीं होंगी।
क्या अभिशप्त है लखोली वार्ड?
वैसे तो कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है, लेकिन शहर की बात करें तो यहां लखोली ही इकलौता वार्ड है, जहां से कोरोना के सर्वाधिक मरीज सामने आए हैं। मरीजों की संख्या बढऩे का क्रम अभी टूटा नहीं है। कोरोना ने लखोली के यादव परिवार के पिता-पुत्र को अपना ग्रास भी बना लिया। इस क्षेत्र में कोरोना के केस बढऩे के बाद पहले यह बात सामने आई कि गंजलाइन के एक कारोबारी के कारण वहां कोरोना के केस बढ़े, क्योंकि यादव परिवार का वह युवक, जो अब स्वर्ग सिधार चुका है, उसी व्यापारी की दुकान में काम करता था। युवक की कोरोना से मौत के बाद लखोली क्षेत्र में तेजी से केस बढ़ते गए।
शहर में जनचर्चा के बीच मृतक के परिवार के लोगों का वह बयान भी सामने आया, जिसमें कहा गया कि कोरोना फैलाने के लिए वह व्यापारी जिम्मेदार नहीं है। यह बात कुछ अखबारों मेें भी छपी है। लखोली में कोरोना के केस बढ़ेंगे या घटेंगे, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इस क्षेत्र में कोरोना महामारी फैलने के बाद अब लोगों के जेहन में एक ही सवाल कौंध रहा है कि आखिर क्या वजह है कि श्रमिक बहुल लखोली क्षेत्र ही महामारी अथवा संक्रामक रोगों का शिकार बनता है? लोगों में इस बात को लेकर चर्चा सरगर्म है कि क्या लखोली क्षेत्र अभिशप्त है? किसी गुनाह के कारण श्राप मिला हुआ है? सच क्या है, यह तो किसी को नहीं पता। शहर में और भी श्रमिक बस्तियां हैं, किंतु लखोली उन सबसे जुदा है। शहरवासी को याद है वो दिन जब लखोली क्षेत्र में डायरिया, पीलिया, हैजा जैसे संक्रामक रोगों ने अपना कहर बरपाया था, तब उसे कंट्रोल करने में प्रशासन के भी हाथ-पांव फूल गए थे। यह जांच और शोध का विषय है कि लखोली में ऐसी कौन सी तमाम परिस्थितियां विद्यमान हैं, जिनके कारण कोई भी महामारी या संक्रामक रोग देखते ही देखते पूरे क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लेता है?
जागरूकता में शहर पीछे, गांव आगे!
कोरोना वायरस ने शहर सहित जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पांव पसार दिए हैं। रोजाना फलां गांव में कोरोना के इतने केस मिले, ऐसी खबरें अखबारों की सुर्खियों में रहती हैं। कोरोना एक ऐसा वायरस जिसे न तो किसी ने अब तक देखा है और न ही उसके कोई ऐसे ठोस कारण अथवा लक्षण हैं, जिससे पता चल सके कि अमुक व्यक्ति को कोरोना है या हो सकता है, बल्कि लोगों ने सिर्फ महसूस किया है कि कोरोना एक महामारी है, जो किसी को भी अपनी गिरफ्त में ले सकती है। देश में कोरोना को आए पांच माह हो चुके हैं। इस मामले में अपना छत्तीसगढ़ और अपना जिला खुशकिस्मत है कि यहां अन्य राज्यों की तुलना में कम केस आए और मौतें भी कम हुईं। कोरोना ने सबको सीखा दिया कि सावधानी ही बचाव है। इस बात को शतप्रतिशत अमल होते गांवों में देखा जा सकता है।
ग्रामीणों में इसे कोरोना का खौफ कहें या जागरूकता कि लोग अब बहुत अलर्ट हो चुके हैं। कोरोना को लेकर सरकार द्वारा जो भी गाइड लाइन व निर्देश जारी हुए हैं, उसका अक्षरश: पालन गांवों में होते देखा जा सकता है। इसके लिए ग्रामीणों को न तो कोई समझाईश की जरूरत पड़ी और न किसी के भाषण की। बल्कि लोगों ने स्वस्फूर्त होकर कोरोना को गांवों तक आने से रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए। गांवों में सोशल डिस्टेंस का पालन और मास्क का उपयोग हो रहा है, लेकिन इस मामले में संस्कारधानी शहर अभी भी पीछे नजर आ रहा है। गांवों में तो पुलिस के जवान कभी-कभार ही जायजा लेने जाते होंगे, लेकिन शहर में पुलिस प्रशासन की सख्ती के बावजूद लोग अभी भी कोरोना महामारी को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। शहर में बगैर मास्क के और बेवजह घूमते हुए लोगों को देखा जा रहा है। पुलिस वाले भी एक तरह समझा-समझाकर थक चुके हैं, लेकिन लोग हैं कि अपनी आदतों से बाज नहीं आ रहे हैं। शनि व रविवार को पूर्ण लाकडाउन के बावजूद कुछ दुकानदारों ने अपने कारोबार चालू रखे तो कई लोगों को लाकडाउन में भी बेवजह घूमते देखा गया। इतना ही नहीं चौक-चौराहों पर लोगों को ग्रुप में खड़े होकर बिना मास्क लगाए बतियाते देखा जा रहा है। हम तो यही कहेंगे- संस्कारधानीवासियों अब भी संभल जाओ। यदि कोरोना को भगाना है, उससे जल्दी मुक्ति पाना है तो शासन-प्रशासन के नियमों का पालन कर अपने घरों में रहें, सुरक्षित रहें, नहीं तो महामारी से निजात पाना आसान नहीं होगा?
बटाल्ट ब्रेख्त की चंद लाइनें-
खाने की टेबल पर जिनके
पकवानों की रेलमपेल
वे पाठ पढ़ाते हैं हमको
‘संतोष करो संतोष करो।’
उनके धंधों की खातिर
हम पेट काटकर टैक्स भरें
और नसीहत सुनते जाएं
‘त्याग करो भई त्याग करो।’
मोटी-मोटी तोंदो को जो
ठूंस-ठूंस कर भरे हुए
हम भूखों को सीख सिखाते
‘सपने देखो, धीर धरो।’
बेड़ा गर्क देश का करके
हमको शिक्षा देते हैं
‘तेरे बस की बात नहीं
हम राज करें, तुम राम भजो।।’
– शहरवासी

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