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इम्पैक्ट फीस की पवित्र गंगा की महिमा का कमाल

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बकौल तत्वचिन्तक-जहां बुद्धि की हद खत्म हो जाती है, वहां श्रद्धा की सरहद शुरू हो जाती है। राजनैतिक विशेषज्ञ इसका अर्थ यह समझते हैं कि जहां सत्ताधिशों की शक्ति अशक्त हो जाती है, वहां से जनता की सशक्त शक्ति शुरू हो जाती है।
सतयुग में भगीरथ राजा की एक ही गंगा का महिमागान गाया जाता था कि चाहे जो जैसा भी दोषित व्यक्ति, गंगामैया में डूबकी मार कर बाहर निकलता है, तब वह परम पवित्र होकर ही आता है। यह कलियुग है। आज के युग में सत्ता में बैठे अनेक भगीरथ राजाओं ने सहकारी आधार पर एक नई गंगा का आविष्कार किया है। इस नवोदित गंगा का नाम है: ‘‘इम्पेक्ट फी’’। इम्पेक्ट फी नाम की गंगा की इतनी पवित्र महिमा है कि उसमें चाहे जितना दोष और चाहे जितना गैर कानूनी काम एक ही डूबकी मारे तो वह कानूनी अमलीजामा पहिन निकलता है। उसमें इम्पेक्ट फी का पवित्र योगदान जवाबदार है। यह तो अच्छा है कि अभी तक किसी ने देशी या अंग्रेजी ‘‘दंगाजल’’ को इम्पेक्ट फी की पवित्र लहर में डूबकी मार कर पवित्र ‘‘गंगा जल’’ में बदलना शुरू नहीं किया है। इम्फेक्ट फी की लीला गजब की है भाई। तयशुदा इम्फेक्ट फी भरो और चाहे जैसे भ्रष्टाचारी को सदाचारी में बदल दो। याने काले रंग को सफेद रंग में बदला जा सकता है। ताबड़तोड़ इम्पेक्ट फीस भरो, ब्लेक स्वयं व्हाईट में बदल जाएगा। इम्पेक्ट फीस के पुण्य प्रताप से भ्रष्टाचार का मर्दन होता है कि वर्धन होता है, यह आज तक का ला-जवाब रहा सवाल है। भ्रष्टाचार के इस महासागर में से असली गुनहगार जैसे मगरमच्छ को पकडऩे के लिए जनता को ही जागते रहने की जरूरत है। जैसे, उपभोक्ता मंडल की रचना की गई है, वैसा ही ‘‘जनता मंडल’’ की रचना की जावे तो कुछ ठोस परिणाम मिल सकता है।
जन आंदोलन विजन बताते हैं, इसे सरकार को समझना होगा
यूं तो देश में आजादी के बाद से कई आंदोलन हुवे हैं। आजादी के पहले भी अंग्रेज सरकार के विरूद्ध क्रांतिकारियों तथा गांधी जी, नेहरू, बोस (नेताजी) जैसे अनेक नेताओं ने आंदोलन किए थे। किन्तु, आजादी के बाद भी जनता को अपनी बात मनवाने सरकार के सामने आंदोलन करने विवश होना पड़ा था। जे.पी. आन्दोलन याने स्व. जय प्रकाश नारायण ने 25 जून 1975 की अद्र्धरात्रि तत्कालिन इंदिरा गांधी नेतृत्व की कांग्रेस सरकार के विरूद्ध देश भर में लगे आपातकाल को खत्म करने आंदोलन किया था। ऐसे समय, कांग्रेस विरोधी दलों के नेताओं की भी बड़ी तादात में गिरफ्तारी हुई थी। जे.पी. आंदोलन से पूरे देश भर में सरकार विरोधी एक मुहिम चली और केन्द्र की सरकार की लोकसभा चुनाव में घोर पराजय हुई थी। देश में पहली मर्तबे संयुक्त विरोधी पार्टियों की सरकार बनी थी। देश में आजादी के बाद जे.पी. आंदोलन सबसे बड़ा और सफल जनआंदोलन था। केरल के पल्लकड़ जिले में सरकार के द्वारा विद्युत परियोजना स्थापित करने की घोषणा हुई थी। जिसके विरूद्ध भी बड़ा जनआंदोलन चला था। आंदोलनकारियों ने जंगल बचाने और सदाबहार घाटी का संरक्षण करने का समर्थन किया था। फलस्वरूप, उस क्षेत्र में बिजली का प्रोजेक्ट रद्द कर दिया गया था। 2021 में भ्रष्टाचार के विरूद्ध और जन लोकपाल बिल लाने के लिए अन्ना हजारे ने दिल्ली में भूख हड़ताल शुरू की थी। जिसमें देश भर के हजारों लोगों ने हिस्सा लिया था। आंदोलन के कारण शरद पवार सहित अन्य केन्द्रीय मंत्रियों को स्तिफा देनें विवश होना पड़ा था। इस आंदोलन को भी भारत का लोकतंत्र बचाने के लिए महत्वपूर्ण आंदोलन माना जाता है। ऐसे ही, 2012-13 में दिल्ली में हुई गैंगरेप की घटना के विरोध में हजारों लोगों को सडक़ों पर देखा गया था। यह आंदोलन निर्भया आंदोलन के रूप जाना गया था। अंत में दोषियों को मृत्युदंड दिया गया था। 2019-20 में सी.ए.ए. के विरोध में दिल्ली के शाहीनबाग में महिनों तक आंदोलन चला था। किन्तु, इसका कोई नतीजा नहीं निकला था। इतिहास में यूं तो कई आंदोलन हुवे। यहां चंद बड़े आंदोलन का जिक्र है।
आंदोलन का जिक्र सामयिक इसलिए है कि देश में किसानों का लम्बा चला आंदोलन भी बहुत कुछ बयां कर गया। इस आंदोलन ने सुप्रीम कोर्ट को सक्रिय कर दिया। फलस्वरूप, कृषि कानूनों को अमल में लाने से रोका गया, स्थगित किया गया। अंतत: केन्द्र की एन.डी.ए. सरकार और प्रधानमंत्री मोदी को तीनों कृषि कानूनों को वापिस लेने की घोषणा करने विवश होना पड़ा। आंदोलन आंशिक रूप से सफल रहा। किसान अभी भी आंदोलित हैं। अपनी सारी मांगे मनवाने वे अडिग हैं। देखना है, आगे क्या होता है? किसानों की सभी मांगे सरकार मान लेती है तो समझा जायेगा कि यह सरकार की राजनैतिक मजबूरी होनी चाहिए। वास्तव में जन आंदोलन तो जनता का विजन बताते हैं। इसके सामने सरकार फिर वह किसी भी पार्टी की हो, को झुकना ही चाहिए।
प्रधानमंत्री जी, आप की सडक़ योजना में होता है सुनियोजित भ्रष्टाचार
केन्द्र की योजनाओं में प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना याने पी.एम. जी.एस.वाई तहत निर्मित सडक़ें निर्धारित नाम्र्स को धत्ता बताकर संबंधित कान्ट्रेक्टर या फिर उनके द्वारा नियुक्त किए गए पेटी कान्ट्रेक्टर के द्वारा बनायी गई है। जितना निर्माण घटिया, उतनी इम्पेक्ट फीस ज्यादा। इस योजना में भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश न रहे, इसके लिए विभिन्न स्तरों पर जांच एंजेसिया जांच करती हैं और अपना मनचाहा जांच प्रतिवेदन बनाती है। प्योर मिल्क से भरे ग्लास में से अपने हिस्से का दूध पीकर उसमें पानी मिलाकर ‘‘दोषी’’ को निर्दोष साबित करना यहां रिवाज बन गया है। जन शिकायतों को निराधार बताकर नस्तीबद्ध कर दिया जाता है। उसके बाद, कार्यवाही किए जाने का तो सरकारी नियमों के अनुसार प्रश्न ही नहीं उठता। भ्रष्टाचार का खेल सडक़ निर्माण एवं मरम्मत कार्यों में बराबर चलता है। स्वीकृत लाखों करोड़ों की राशि में साठ फीसदी राशि ही भाग्य से इन्वेस्ट होती है। कमोबेश यही स्थिति मुख्यमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना की है। गुणवत्ता समीक्षक भी तो आखिर भ्रष्ट समाज की देन होते हैं। यहां बिल्ली को ही दूध की रखवाली करने रखा जाता है। ‘‘इम्पेक्ट फीस’’ का ही यह कमाल होता है। फिर क्यों न वे सडक़ें गुणवताविहीन व अमानक स्तर की सामग्रियों के उपयोग से ही बनी हों?
एक ऐसा विभाग जहां गंभीर अपराध में भी संगीन सजा नहीं होती
जिले का खाद्य एवं औषधि प्रशासन भी मलाईदार है। राजनांदगांव जिले में पिछले दो सालों में लगभग 1000 दवा दुकानों का निरीक्षण संबंधित ड्रग इन्सपेक्टरों ने किया है। निरीक्षण करना भी मजबूरी होती है। क्यों कि, सरकार ने निरीक्षण करने का कोटा जो फिक्स किया हुआ है। खैर, निरीक्षण में लगभग 75 दवा दुकानों में अनियमितता पायी गयी। औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम 1940 एवं नियमावली के तहत निलम्बन की कार्यवाही भी हुई थी। किन्तु, निलम्बन के दौरान किसी एक भी दवा दुकानों में ताला नहीं लगा। बेरोकटोक दवा दुकानों के संचालकों के द्वारा व्यापार चलते रहा। क्या यह बगैर इम्फैक्ट फीस के संभव है? इसी दौरान की उक्त समयावधि में उक्त विभाग की शाखा के खाद्य निरीक्षकों ने भी लगभग 100 होटलों, किराना-अनाज दुकानों में मिलावट है या नहीं? इसकी जांच कर खाद्य सामग्रियों के सेम्पल भी लिये। इनमें से 16 सेम्पल्स अमानक स्तर के पाए गए थे। 15 प्रकरणों को न्यायालय में दाखिल किया गया था। 12 प्रकरणों पर न्यायालय के द्वारा जुर्म सिद्ध होने पर लगभग डेढ़ लाख रूपयों का अर्थदण्ड आरोपित किया गया था। कारावास क्यों नहीं दिया? ये चिन्तन का विषय है। मिलावटी खाद्य सामग्रियों का सेवन करने वाले स्वाभाविक रूप से बीमार हुए होंगे। क्या उन्हें सही न्याय मिला? यह भी सोचनीय है। यहां भी इम्पेक्ट फीस का योगदान होना चाहिए।
आया है मुझे याद वो ‘‘मेला’’ जालिम
इन्सा जब तक बच्चा है तब तक समझो सच्चा है। ज्यों ज्यों इसकी उम्र बढ़े मन पर झूठ का मैल चढ़े, क्रोध बढ़े, नफरत घेरे, लालच की आदत घेरे, बचपन इन पापों से हटकर अपनी उमर गुजारे। यहां का अति लोकप्रियता हासिल कर चुका मोहारा मेला साल में जब एक बार आता है तब बचपना नजरों के सामने हिलोरे करने लगता है। दोस्तों के साथ शार्टकट से खेतों की मेढ़ों पर चलकर मेला पहुंचते थे। जेब में केवल 10-15 रूपयों से ही झूला झूलते थे, चासनी वाले बेर, गुपचुप, सिंघाड़े खाते और आखिर में गन्ना चूसते पैदल ही वापस लौटते थे। पवित्र शिवनाथ में गोते लगाते लोग, शिव मंदिर में भोले के दर्शन करने उमड़ते श्रद्धालुओं का हुजूम, नदी के उस पार बेर तोड़ते बच्चे, क्या कभी भुलाएं जा सकते हैं? बहरहाल, त्रिदिवसीय मोहारा मेला हमारी सांस्कृतिक लोक खजाना लिए परम्परागत धरोहर है। मोहारा पहुंचने धूल धुसरित सडक़ें, अविकसित, अस्त व्यस्त रास्ते, अस्वच्छता का साम्राज्य कब दूर होगा? यह भी देखना है।
कवि गुलजार ने लिखा है-
जीवन से लम्बे हैं बंधु,
ये जीवन के रस्ते,
इक पल थम के रोना होगा,
इक पल चलना हंसके।
दिन और रात के हाथों नापी,
नापी इक उमरिया,
सांसों की डोरी छोटी पड़ गई,
लंबी आस डगरिया
भोर की मंजिल वाले,
भोर को उठकर चलते।
ये जीवन के रस्ते।

  • दीपक बुद्धदेव

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