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शिक्षा का उचित प्रतिफल ‘‘दूर की कौड़ी’’ नजर आता है

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जय हो कोरोना महातारी, मैया जय हो कोरोना मैया… राजू की आवाज सून चम्पक पूजा रूम में गया तो देखाा कि राजू कोरोना की हैडलाइन लिए अखबार को सामने रख आरती उतार रहा था। चम्पक ट्रेम्प्रामेंट खो बैठा-जोर से चिल्लाया… राजू ये क्या कर हा है? कोरोना की आरती उतार रहा है, जिसने न केवल देश को बल्कि विश्व को हलाकान कर रखा है। राजू सहम गया, भोलेपन से बोला- पप्पा, एक साल तक तो ठीक से पढ़ाई ही नहीं हुई। आनलाईन पढऩा किसी गंभीर मजाक जैसा लगा। इस कोरोना के कारण बोर्ड की परीक्षाएं रद्द हो गई। हम प्रोमोट हुए। इस कारण मैं कोरोना की आरती उतार रहा था।
चम्पक शांत हुआ। बाद में उसने यही बात बाबूलाल को बतायी। बाबूलाल भी यह सुनकर सीरियस हो गया। फिर कहा-चम्पक ठीक है, बच्चे प्रोमोट हो गए। डिग्रियां भी मायने रखती हैं। किन्तु, डिग्रियां, फिर वह ऊंची-ऊंची ही क्यों न हो? केन्द्र व राज्य सरकारें शिक्षा के प्रचार-प्रसार, शिक्षकीय कार्यों में करोड़ों रूपए खर्च कर रही हैं। नए-नए अधिनियम बनाती हैं। किन्तु, शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के चलते गरीब बच्चों से शिक्षा दूर की कौड़ी होती नजर आ रही है।
सरकार की शिक्षानीति का वास्तविक उद्देश्य तो यही लगता है कि शिक्षा माफिया की संस्थाओं को अनुदान बांटने के अलावा कुछ नहीं कर रही है। निजी स्कूलें सुविधा उपलब्ध कराने के नाम पर मोटी फीस वसूलती हैं और ऊंची-ऊंची आलीशान इमारतें खड़ी कर रही हैं। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की स्थिति सरकारी अनुदान, नि:शुल्क शिक्षा, मध्यान्ह भोजन वगैरह-वगैरह सुविधाएं मुहैय्या कराने के बावजुद दिनों दिन खस्ता होती जा रही है। कई सरकारी व अनुदान प्राप्त स्कूलें बंद होने के कगार पर हैंं। भारत में शिक्षा पर राष्ट्रीय अभियान की शुरूआत सर्व शिक्षा अभियान अंतर्गत वर्ष 2000 में हुई है। दिलचस्प यह कि वर्ष 2000 में दक्षिण आफ्रिका में आयोजित विश्व शिक्षा सम्मेलन में तय किया गया कि तमाम अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं व सशक्त अमीर देशों की मदद से भारत की गरीब अशिक्षित जनता को पढ़ा लिखा कर शिक्षित व विद्वान बनाया जावेगा। देश के 6 से 14 वर्ष तक हर बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा की घोषणा कर दी गई। उसके बाद, 2012 तक याने 13 सालों में कई खरब की मोटी राशि इस मुहिम के नाम पर स्वाहा कर दी गई। देश में ऐसे-ऐसे स्थानों में पंखे, एसी, कम्प्यूटर लगा दिए गए, जहां बिजली तो दूर उसके खम्भे भी नहीं थे। कैग की एक आडिट रिपोर्ट में उजागर हुआ कि करीब 500 करोड़ रूपए भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए।
भ्रष्टाचार की अंतहीन यह गति आज भी पूरे देश में सुपरफास्ट है। फर्नीचर, यूनिफाम्र्स, शूज, पुस्तकें, भवन, आश्रम के नाम पर अनियंत्रित भ्रष्टाचार पवित्र माने जाने वाली शिक्षा को अपवित्र किए हुवे है।
पढ़ा-लिखा भी गलत काम करें तो शिक्षा का महत्व क्या है?
डीयर बाबूलाल, देश में भ्रष्टाचार की एक से बढक़र दास्तान ‘‘हरि अनंता, हरि कथा अनंता’’ जैसी विद्यमान है। ऐेसे समय, मुझे 1964-65 के वर्ष में हार्वर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफेसर बी.एफ. स्किनर जो मनोविज्ञान के क्षेत्र में विश्व में लोकप्रिय हुवे थे। उनका कहना था कि अगर सही व उचित प्रशिक्षण दिया जाए तो शिक्षा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन ला सकती है। इसके लिए ‘‘टेक्नालाजी आफ बिहेवियर’’ पर उन्होंने काफी जोर दिया था, शहरवासी ने कहा। जिस शिक्षा से मनुष्य में विवेक न आए, व्यवहार में परिवर्तन न आए, ऐसी शिक्षा किस काम की ? अगर शिक्षितों को ईमानदारी से उचित प्रशिक्षण दिया जाता है तो सडक़ों पर होने वाले हादसों को रोका जा सकता है। विज्ञान का विद्यार्थी या डिग्री होल्डर्स अंधश्रद्धा में डूबे देखे जा सकते हैं। देश में गुरू घंटालों की कमी नहीं है।
देश की शिक्षानीति में खामियां बहुत हैं। हम देखते हैं, शिक्षित व्यक्ति भी कहीं भी थूक देता है। शिक्षित मनुष्य भी देवी-देवताओं की मानता रखा ‘सब कुछ अच्छा’ होने की कामना करता है। शिक्षित व्यक्ति विवाह पूर्व दहेज की इच्छा रखता है। शिक्षित युवा वर्ग व्यक्ति हानिकारक जर्दा, मावा-गुटका, तम्बाखू, बीड़ी, सिगरेट पीकर कैंसर को आमंत्रित करता है। शिक्षित व्यक्ति भी पत्नी से मारपीट करता है। शिक्षित व्यक्ति भी गंदगी को चला लेता है। शिक्षित व्यक्ति भी देश में रिश्वतखोरी करता है, रिश्वत देता है, लेता है। शिक्षित व्यक्ति देश में मताधिकार का उपयोग नहीं करता। चुनाव दौरान राजनीतिज्ञों के संभाषणों में शिक्षित व्यक्ति झूठ को ही सच मान भरोसा कर लेता है।
ऐसे अवांछित किस्सों की तो लम्बी सूची है। पढ़े-लिखे लोग ही अनपढ़ व्यक्ति के समान व्यवहार करते हैं। ऐसी शिक्षा का क्या महत्व? क्या केवल डिग्रियां हासिल कर जाब करना ही एक मात्र उद्देश्य रह गया है? वास्तव में विवेक-व्यवहार में परिवर्तन नहीं आया तो वह शिक्षा किस काम की?
जो भी देश का शासक नेता होता है, वह देश को बदलने की बात करता है। वास्तव में देश में तभी प्रगतिशील बदलाव दिखाई देगा जब लोगों की मानसिकता बदलेगी। इसे शर्मनाक ही कहना चाहिए कि देश में स्वच्छता अभियान चला और उसमें भी अरबों स्वाहा हो गए। गंदगी तन-मन दोनों के लिए हानिकारक है, इतनी सी बात लोग नहीं समझते। इसमें शिक्षित वर्ग भी शामिल है।
वास्तव में शिक्षित व्यक्ति वह है जो भ्रष्टाचार से होने वाली कमाई से नफरत करता हो। महिला को पीडि़त करने वाला व्यक्ति वास्तव में कायर है। देश की शिक्षा नीति ऐसी होनी चाहिए कि देश व देश की जनता की योग्य परवरिश कर सके, संस्कार दे सके।
शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार है। यह हथियार धारहीन न हो जाए, उसके लिए सरकार को शिक्षा क्षेत्र में बड़ा पूंजीनिवेश करना होगा। वास्तव में यह निवेश ही मानवता में किया गया निवेश माना जाएगा।
प्रशासनिक सर्जरी या तबादलों से ‘सिस्टम’ की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता
कलेक्टर बदले। जिले के प्रशासनिक मुखिया रहे टोपेश्वर वर्मा का राजधानी स्थित सचिवालय में तबादला हो गया, उनके स्थान पर जनसम्पर्क विभाग में आयुक्त व सहसंचालक रहे तारण प्रकाश सिन्हा को यहां का कलेक्टर बनाया गया है। ट्रांसफर आदेश के पहले कलेक्टर वर्मा ने भी अपने अधिकारों का उपयोग करते हुवे जिले में बड़ी प्रशासनिक सर्जरी कर दी। ऐसा भी होना चाहिए। प्रशासनिक दृष्टिकोण से तबादले तो होते ही रहते है, चम्पक ने बतियाया। बोला-प्रशासन विज्ञान में मूलभूत अच्छाई कार्यकुशलता ही होती है। प्रशासन के मूल्यांकन में कार्यकुशलता सर्वप्रथम स्वयं सिद्ध तथ्य है।
बाबूलाल ने अपने विचार रखते हुवे कहा कि सरकार या प्रशासन के कार्य राजनीतिक परिस्थितियों और मान्यताओं से प्रेरित होते हैं। राजनीति और प्रशासन में अत्यन्त घनिष्ठ संबंध होते हैं। प्रशासन और राजनीति को यूं तो गुड गर्वनेस के लिए पृथक होना चाहिए। लेकिन, इसके विपरीत हमारे देश में ये दोनों अभिन्न अंग है। इसके बावजुद अनेक विरोधाभास एवं तनाव भी दिखाई देता हैं।
तबादले या प्रशासनिक सर्जरी के असली मायने ये हैं कि ‘‘सिस्टम’’ – बदलना चाहिए, शहरवासी का चिन्तन था। उसने कहा- सरकारें बदलती हैं। अधिकारियों को बदला जाता है, किन्तु सिस्टम नहीं बदलता। हमारे देश में सिस्टम को ‘जैसे थे, वैसे ही’ का अभय वरदान मिला हुआ है। सरकार व उनके शासक के कुप्रबंधन व लचिले व्यवहार से सरकार का स्वास्थ्य बिगड़ता है, किन्तु सिस्टम अडिग खड़े रहता है। सिस्टम कभी बीमार नहीं पड़ता। किन्तु सरकारें या जनहित के कार्यों या विकास अस्वस्थ होता दिखाई देता है।
देखी मित्रों, वास्तव में तो सिस्टम का सेतु तो सरकार और जनता के बीच रचा जाता है। किन्तु, इसका उपयोग जनता के लिए होना बहुत ही कम अनुभव में आता है। यह सेतु बनता तो जनता के लिए है, किन्तु इस सेतु पर जनता का आवागमन प्रतिबंधित रहता है। जनता को केवल इतनी राहत है कि गुड गर्वनेन्स और जनता के लिए बने पेपर्स, जिनमें नियमों का उल्लेख रहता है, वह ‘‘शो पिस’’ जैसे रहते हैं, जिसे जनता देख भर सकती है। प्रेक्टीकल होने की मान्यता रखने वाली जनता इसे ‘‘विन्डो शापिंग’’ कहती है तो कोई इसे ‘‘विन्डो इटिंग’’ कहता है। हिन्दी की एक कहावत है कि ‘‘साड़ी बीच नारी है कि नारी बीच साड़ी है’’ के समान आजादी के इतने सालों के बाद भी जनता को यह समझ में ही नहीं आया कि प्रशासन बीच प्रशासनकर्ता है या प्रशासनकर्ता बीच प्रशासन है। संक्षिप्त में फिलहाल तो सिर्फ इतना ही है कि ‘‘हर शाख पे सिस्टम बैठा है, अंजामें गुलिस्तां क्या होगा?’
‘इंटरनेशनल पेरेन्ट्स डे’ के क्या कहने?
हाल ही ‘‘ग्लोबल डे आफ पेरेन्ट्स’’ विश्व स्तर पर सम्पन्न हो गया। अपनी राष्ट्रभाषा में इसे ‘‘मां-बाप दिवस’’ कह सकते हैं। एक चिरपरिचित परम्परा का रूप ले चुकी प्रथा यह कि अंतर्राष्ट्रीय कोई भी ‘‘डे’’ हो तो तदानुसार उसका स्तुतिगान व उसकी प्रशस्ति होती है। पेरेन्ट्स डे के भी दिन ऐसा ही हुआ। मां-बाप को बदहजमी हो जाए उतनी प्रशंसा व उनकी अहमियत का गान सोश्यल मीडिया में हुआ था। मां-बाप का यशोगान करना अच्छी बात है। लेकिन अधिकांशत: बाकी 364 दिन घरों में बुजूर्ग मां-बाप की भावनाओं को आघात पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अगर वास्तव में नींव के पत्थर सदृश्य मां-बाप की भावनाओं का सम्मान किया जावे तो साल में एक दिन ‘मां-बाप दिवस’ मनाने की नौबत ही नहीं आयेगी। भले ही हम ‘श्रवण’ न बन सके। किन्तु, श्रवण को समझ तो सकते हैं। कम से कम मां-बाप के दिलोदिमाग को छोटी-मोटी मामूली बात को लेकर भी ठेस न पहुंचाए।
इन्टरनेशनल मदर्स डे, इंटरनेशनल पेरेन्ट्स डे, वुमन डे जैसे डेज ‘एवरी डे’ मनाना चाहिए। हमारे देश में ऐसे भी बहुत से ‘पप्पा’ हैं जो संतानों को अफलातुन बिगाडऩे में बड़ा योगदान देते हैं। जिसमें मम्मियों का भी मौन समर्थन होता है। बाप नेता हो तो अपनी संतानों को सवाया नेता बनाने का प्रि-प्लानिंग करता रहता है।
अच्छे व समझदार मां-बाप बनना भी बहुत कठिन है। प्यार लूटाने वाले व बच्चों को पूरी छूट देनें वाले मां-बाप तो बहुत मिलेंगे। खानदानी परिवार में समझदार मां-बाप मिल जायेंगे। किन्तु, अब खानदानी, संयुक्त परिवार मिलते भी बहुत कम हंै।
संत कबीरदास ने कहा है-
सुखिया सब संसार है, खांवै और सोवैं।
दुखिया दास कबीर है, जगै और रोवैं।।

  • दीपक बुद्धदेव

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