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लाश प्रमोशन खत्म करने राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति अपनाएं

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कोरोना की दूसरी लहर को मात देने का एक्सपर्ट द्वारा दावा किया जा रहा है। वहीं चम्पक को यह ही समझ में नहीं आ रहा है कि पहली लहर, दूसरी और अब भविष्यवाणी की तीसरी लहर भी जल्द आयेगी, ये सारी लहरें क्या टाउटे, यास जैसी हैं या कुछ और? कोरोना की लहरें का आंकलन करने वाली शक्तियां प्रतिदिन नए केसेज, पाजिटिविटी दर, मृत्युआंक व सक्रिय केस की संख्या को सार्वजनिक करती हैं। चूंकि, ये अधिकारिक आंकड़े रहते हैं तब हम विश्वास करने विवश हैं। बाकी विपक्ष तो कह रहा है कि सरकार कोरोना महामारी से मरने वालों की वास्तविक संख्या को छिपा रही है।
बाबूलाल-मित्र, मृत्यु तो अटल है। उसे टाला नहीं जा सकता। कोरोना मृत्यु का निमित्त बना है, बस इतना ही समझना पर्याप्त है। यह भी हकीकत है कि अभी तक कोरोना से करोड़ों-अरबों का नुकसान देश, राज्य और व्यक्ति झेल चुका है। अब कोरोना की तीसरी लहर से देश को बचाने अथवा कम नुकसान झेलने सावधान होने का एक मात्र उपाय है- व्यापक वैक्सीलेशन याने टीकाकरण। इसे समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। छोटा बच्चा भी इसे कह सकता है।
आज विश्व और उसमें शामिल भारत कोरोना महामारी के कारण एक भयानक संकट से गुजर रहा है। ऐसी भयानकता की कल्पना न जनता ने की थी, न शासन और न प्रशासन ने। चारों ओर रूदन है, हताशा है, करूणांन्तिका है। शायद ऊपर वाला धरतीजनों से रूठ गया प्रतीत होता है। शहर में लाइटों का प्रकाश कम और श्मसानों में चिताओं का उजाला अधिक है। पक्षियों के कलरव से ज्यादा एम्बुलेंसों की चीखें ज्यादा सुनाई दे रही हैं। टीवी चैनल्स मनोरंजन कम और गमी याने मरने वालों के समाचार ज्यादा परोस रहे हैं। नि:संदेह यह राष्ट्रीय आपत्ति है। आजादी के बाद भारत ने अनेक युद्ध देखे हैं, लेकिन अदृश्य शत्रु के साथ ऐसा युद्ध कभी देखा नहीं। इस युद्ध ने तो पूरे देश की भूमि को युद्धभूमि बना दिया है। कोरोना नाम का शत्रु शस्त्रविहीन नागरिकों को काल के काल में धकेल रहा है।
अब पैसों की भी कोई कीमत नहीं रही। धनवानों के पास पैसा है, किन्तु हवा नहीं है। जिस प्राणवायु को ईश्वर ने मानव समाज को मुफ्त में भेंट दिया था, उसी प्राणवायु के अभाव में मरीजों को मौतें अपने आगोश में ले रही हैं। आदमी को केवल तीन मिनट ही आक्सीजन नहीं मिलेगी तो उसकी मृत्यु निश्चित है। अब तो यही कह सकते हैं कि पृथ्वी की कक्षा में आक्सीजन नहीं मिलता तब पेशेन्ट को पृथ्वी की कक्षा से ऊपर की कक्षा…. याने कि स्वर्ग लोक में चढ़ा दिया जाता है। इसे ‘‘लाश प्रमोशन’’ कह सकते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि ‘‘जान देने वाले जान बचाने में सीरियस, सिन्सीयर व ह्यूमेनिटी नहीं रखेंगे तो फिर लाश का तो प्रमोशन ही होना है। ताज्जुब यह कि यह प्रमोशन मास में हो रहा है।
अब इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि ऐसे राष्ट्रीय आपदा जैसे संकट में कई विपक्षी दलों के द्वारा नानाप्रकार के आरोप मढ़े जा रहे हैं। अब राजनीतिज्ञों को यह बात कब समझेगी कि यह समय राजनीति करने का नहीं है। फिलहाल, सब कुछ भूलकर केन्द्र व राज्यों की सरकारों को, खास कर पक्ष-विपक्ष को साथ बैठकर इस भयानक संकट का सामना एकजुट होकर करना होगा। स्मरण में रखे जाने वाली बात यह कि एक फेडरल कन्ट्री याने कि ‘‘समवायी तंत्र’’ वाला यह देश है। अभी आरोप-प्रत्यारोप लगाकर तनाव खड़ा करने का यह समय नहीं है। देश जब संकट में है तब राजनीति छोड़ कर राष्ट्रनीति का अनुसरण करना चाहिए।
कोरोना के मरीजों की संख्या बाबत में भारत अपकीर्ति का सामना कर रहा है। देश की जनता असहाय महसूस कर रही है। तब प्रश्न उठता है कि ‘‘डिजास्टर’’ मैनेजमेंट कितना कार्यरत है? सरकार ने क्या किया? अदालतों को दखलन्दाजी करनी पड़ रही है, यह ही शर्मनाक वाक्या है। इसका स्पष्ट अर्थ तो यही होता है कि ‘‘सिस्टम’’ ही ठीक नहीं है। अभी तक थोक में भूलें हुई हैं, अब समय रहते भूलों को नहीं सुधारा गया तो कोरोना की तीसरी लहर छोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक को अपनी चपेट में ले सकती है।
देश तो युवा है लेकिन युवा बेरोजगार है
लॉकडाउन का ब्रेकडाउन अब आंशिक है। सुबह 6 से शाम 5 बजे तक बाजार पूर्व के समान ही खुल गया है बाबूलाल। क्या इससे व्यापारियों को राहत मिली है? नहीं चम्पक, लॉकडाउन शनि गृह सदृश्य है। उसकी दृष्टि सम्पूर्ण हो या आंशिक, वह धंधे-रोजगार को प्रभावित तो करेगा ही। एक तो देश व देश के सभी राज्यों व राज्यों के शहरों, गांवों में व्यापार तो कोरोना के आने के पहले से ही ठप्प हो गया था। जनभावनाएं कुंलाचे भर मर गई। लोगों का जीना तो तभी मुहाल हो गया था। लोगों को तो आसमानी और सुल्तानी मार ऐसे पड़ी है कि दुबले पर दो आषाढ़ जैसे हालात हैं।
कहावत यह कि सरकार का तेल जले, मुर्गा खेले फाग, जैसे हालात हैं। महंगाई डायन बनी है, जो मध्यमवर्गीय परिवारों को हलाकान कर रही है। सरकार हर साल बजट प्रस्तुत कर रोजगार के नए नए मार्गों का नक्शा, प्राक्कलन बनाती है और सिस्टम को चलाने वाले नौकरशाह उस मार्ग पर आधे या एकाद किलोमीटर की दूरी पर छोटे-मोटे स्पीड ब्रेकर्स का नवसर्जन करते रहते हैं। सरकार सर्जन करती है, नौकरशाही नवसर्जन करती है।
कहते हैं कि दुनिया के नक्शे में भारत युवाओं का देश कहलाता है, लेकिन देश का युवा बेरोजगार है। युवक-युवतियों की हालत देश में बंजारों जैसी हो गई है। शहर-शहर सडक़ें-गलियां नाप रहे हैं ‘‘नो वेकेन्सी’’ के बोर्ड लटके देखकर ‘‘डीप्रेशन’’ में जा रहे हैं। एक नई शू-फैक्टरी के मालिक ने राजनीतिज्ञों की शैली में बेरोजगारों को ध्यान में रखकर एक नारा प्रचारित किया ‘‘हमारे जूते पहनियें और रोजगार ढूढें, नौकरी आप के पैरों में होगी’’ बेचारे के ‘सिर मुढ़ाते ही ओले पड़े’ जैसे हालात हुवे। प्रचार में भारी खर्च किया। युवकों ने उस कम्पनी के जूते-चप्पल खरीदे, पहिने लेकिन दशियों किलोमीटर रोड नापने के बाद भी नौकरी नहीं मिली। अब उसकी शूज फैक्ट्री भी बंद होने के कगार पर है।
चंद चतुर-होशियार बेरोजगारों ने समय को भांपते हुवे सत्तासीन पार्टी में प्रवेश कर भाग्य आजमाया। ऐसे में भाग्यशालियों की किस्मत ने साथ दिया और उन्हें राजनीति के व्यवसाय ने फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। पालिटिकल सेक्टर की ब्राइट साइट यह कि इसमें पढ़े-लिखे होने की अनिवार्यता नहीं है, चाल-चरित्र व चलन कैसा भी हो, सब यहां चलता है। बेरोजगार युवकों को आत्मनिर्भर होने की इसमें बहुत गुंजाइश है। शर्त यही कि स्वाभिमान और जमीर को तिलांजलि देनी पड़ती है। योग्यता उनमें इतनी तो होनी चाहिए कि, क्या बोलना, कैसा बोलना, कहां और कब बोलना? इसकी समझ होनी चाहिए। 21वीं सदी मेें राजनीतिक क्षेत्र के चमकने व दौड़ते रहने से कुछ अंश में बेरोजगारी कम हुई है।
आदि पत्रकार ऋषि नारद जी सभी की मंगलकामनाएं पूर्ण करें
हर शहर, हर जिले की पत्रकारिता की अपनी अलग जरूरत होती है। उसी के मुताबिक वहां की पत्रकारिता का तेवर तय होता है और उसकी अपनी एक अलग परंपरा बनती है। बेशक, पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आयी है। जिसे दूर करने के लिए जरूरत के हिसाब से रास्ते सुझाएं भी जाते हैं। हालांकि कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें हर जगह पत्रकारिता की कसौटी बनाया जा सकता है, बाबूलाल की पत्रकारिता विषयक चर्चा करने पर शहरवासी भी थोड़ा गंभीर हो गया। बोला, डीयर बाबूलाल शहर में भी पत्रकारों से जुड़ी संस्थाएं हैं। एक संस्था का तो पूर्ववर्ती सरकार के पूर्ण सहयोग और एक स्थानीय चोटी के उद्योगपति के योगदान से अपना विशाल भवन भी है। संस्था में पत्रकारों, प्रकाशकों, मीडिया कर्मियों व मालिकों-सम्पादकों से जुड़े सदस्यों की बड़ी संख्या है।
तब तो शहरवासी संस्था में पत्रकारिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहने बैठकों या गोष्ठियों के माध्यम से पत्रकारिता के क्षेत्र में आयी कुछ गंभीर खामियों पर चर्चा, विचार विमर्श भी होता होगा, चम्पक ने पूछा। नहीं चम्पक, ऐसी बैठकें-गोष्ठियां तो नहीं होती। हर कोई जानता है कि मीडिया उन्ही बातों को प्रमुखता से उठाता है, जिससे उसके व्यवसायिक हितों को पोषण मिलता रहे। संस्था का नेतृत्व भी इसी मार्ग पर चलना बेहतर मानता है। पत्रकारिता के भविष्य को लेकर वास्तव में चिन्ता ही नहीं होती। जिसका कारण यही है, समझदार लोगों का मानना है कि चिन्ता चिता समान होती है। यूं भी कोरोना काल में चिताएं थोक में भपक रहीं हैं। प्रेक्टीकली पत्रकार चिन्ता का इलाज व्हीस्की पीकर कर लेता है, शहरवासी ने जवाब दिया। बाबूलाल- तो क्या संस्थान पत्रकारिता को सार्थक बनाने की दिशा में कोई पहल नहीं करता? चम्पक- समझे नहीं बाबूलाल, पत्रकारिता सार्थक होने लगेगी तो बाजार के लिए अपना हित साधना आसान नहीं रह जाएगा। पत्रकारों को हमेशा विज्ञापनों का टोटा रहता है। चम्पक – संस्थान फिर किस उद्देश्य को लेकर कार्यरत है? शहरवासी-पत्रकारों के कल्याण के लिए फिलहाल संस्थान सक्रिय दिखाई दे रहा है।
लेकिन सुना है कि शहरवासी, संस्थान के नेतृत्व का कार्यकाल तो निष्क्रिय था, याने फिर कल्याण कैसे हुआ? नेतृत्व तो वास्तव में कार्यकाल खत्म होने के बाद भी पोस्ट पर बने रहने की लालसा रखे हुवे है। भाग्य से कार्यकाल समाप्ति के दो-तीन माह बाद ‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा’ की तर्ज पर ‘कोविड’ से बचने के उपायों पर कार्यरत सरकार भी नहीं चाहती कि कहीं भी कोई चुनाव हो और कोरोना संक्रमित हो। इसलिए उसके निर्देश पर हर जगह चुनाव टाल दिए गए हैं।
वैसे चम्पक, नेतृत्व पत्रकारों को आवास दिलाने में सक्रिय नजर आया। स्थानीय सत्ता में शामिल लोगों को इक_े कर, उन्हें साध कर, शासन से जमीन की स्वीकृति हासिल की है। रियायत दर पर जमीन उपलब्ध होने से पत्रकार सदस्यों को काफी खुश देखा जा रहा है। ठीक कह रहे हो बाबूलाल, फिर भी अभी कसौटी खत्म नहीं हुई है। पे्रस संस्थान और हाउसिंग सोसायटी के नेतृत्व से पत्रकार को बहुत अपेक्षाएं हंै। नेतृत्व परिपक्व व वरिष्ठ है। भरोसेमंद हैं। प्रेस व पत्रकारों की गरिमा, पत्रकारों की जागरूकता और उनकी अपेक्षाओं से वे भलिभांति अवगत हैं। कोरोनाकाल में मीटिंग्स तो होने से रही। व्हाटअप्स से जुड़े अपने वरिष्ठ सम्पादकों, पत्रकारों का भरोसा कायम रखने नैतिकता, पारदर्शिता व जरूरी बातों के मददेनजर सूचनाओं-जानकारियों को शेयर करते रहेंगे, ऐसा पत्रकारों का मानना है।
मसलन जैसे? चम्पक ने पूछा। तब शहरवासी ने कहा कि हर माह संस्थान-सोसायटी का आय-व्यय, बैंक की पासबुकों की अंतिम प्रविष्टि, समय-समय पर जमीन से जुड़ी हर जानकारी। रानी सूर्यमूखी की सम्पदा क्या संस्थान के नाम पर जमीन की रजिस्ट्री करेगी? शहरवासी ने कहा- नहीं, सम्पदा अपनी सम्पत्ति का विक्रय नहीं कर सकती। उसे लीज पर या किराये पर देगी। किराए की राशि का वहन हर साल सदस्यों को ही करना होगा। देखो बाबूलाल, ऐसी तो अभी बहुत कसौटियां आयेंगी। नेतृत्व संस्थान के वरिष्ठ सम्पादकों से समय-समय पर मश्वरा लेता रहेगा और तदानुसार कार्य करेगा तो सभी सदस्यों को इसका आर्थिक फायदा मिलेगा और मकान सस्ते में बनेगा। पत्रकारिता जगत के पुरोधा आदि पत्रकार ऋषि नारद जी सभी पत्रकारों की मंगल कमानाएं पूर्ण करें, अपनी तो यही शुभकामनाएं है।
तभी चम्पक गा उठा –
आ चल के तुझे मैं लेके चलूं
इक ऐसे गगन के तले
जहां गम भी न हों, आंसू भी न हों
बस प्यार ही प्यार पले
इक ऐसे गगन के तले

दीपक बुद्धदेव

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