Home छत्तीसगढ़ भूख, प्यास और श्रम से मर रहे मजदूरों की व्यथा क्लाइमेक्स पर

भूख, प्यास और श्रम से मर रहे मजदूरों की व्यथा क्लाइमेक्स पर

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दु:खी मन मेरे, सुन मेरा कहना
जहां नहीं चैना, वहां नहीं रहना
दर्द हमारा कोई न जाने
अपनी गरज के सब हैं दीवाने
किसके आगे रोना रोएं,
देश पराया, लोग बेगाने, दु:खी मन मेरे…

वाह! शहरवासी, क्या खूब फिट बैठता है यह गीत देश के गरीब मजदूरों पर। मित्र गाओ और आगे गाओ….इसमें मजदूरों का दर्द छिपा है, जो इनकी मनोदशा को बयां करता है। शहरवासी ने बाबूलाल के आग्रह पर फिर पूरा गाना सुनाया।
लाख यहां झोली फैला ले
कुछ नहीं देंगे, ये जग वाले
पत्थर के दिल मोम न होंगे
चाहे जितना नीर बहा ले, दु:खी मन….
अपने लिए कब हैं ये मेले
हम हैं हर इक मेले में अकेले
क्या पाएगा इसमें रहकर
जो दुनिया जीवन से खेले, दु:खी मन मेरे…

इस टे्रजडी गाने को सुन बाबूलाल भी बहुत दु:खी हुआ। चम्पक ने कहा- मित्र अभी तक लाकडाऊन शुरू होने के बाद 375 मजदूरों की कोरोना के बगैर मौत हो गई। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एक करूणाजनक घटना घटी। रेलवे की पटरी पर थके हारे सोए 16 मजदूरों की मालगाड़ी ट्रेन दौड़ते ही मौत हो गई। देश में लाकडाऊन के दौरान यह करूणाजनक घटना बड़ी शर्मनाक है। जिन मजदूरों के कारण यह देश उजला है। देश की अर्थव्यवस्था जिनके कारण आगे बढ़ रही है। देश के शहर जिन लोगों की मेहनत के कारण जगमगा रहे हैं, उन लोगों के दयनीय हालात आज किसी से छिपे नहीं हैं। बेसहारा, बेबस, कमजोर होकर ये मजदूर खाली हाथ और भूखे पेट अपने गांव की ओर मुंह करके चल रहे हैं। उनकी जेब में पैसे नहीं, उनके थैले में बच्चों को खिलाने अनाज नहीं है। वे जहां कमाने के लिए जिस शहर में गए थे, उन शहरों ने उन्हें छोड़ दिया है। जिस फैक्ट्रियों में काम करते थे, उन फैक्ट्रियों में ताले लग गए हैं। मालिकों ने उन्हें न वेतन दिया और न ही दिहाड़ी मजदूरी दी। अब उनके पास काम नहीं है। जहां रहते थे, वहां मकान किराया देने पैसे नहीं है। ऐसी लाचार स्थिति में स्वाभाविक है कि उन्हें अपने गांव की याद आए। किंतु कठिनाई यह है कि मजदूरों को अपने गांव तक जाने की व्यवस्था पंगु है। ट्रेन और बस की सुविधा उन्हें उपलब्ध नहीं है, लाचार मजदूर जितना सामान उठा सकते हैं, उतना सामान लेकर ये मजदूर अपने परिवार के साथ चल निकले हैं। उपेक्षित मजदूर रेल पटरी पर चलना इसलिए बेहतर समझते हैं कि सडक़ मार्ग में पुलिस की तैनाती से वह गंतव्य स्थान तक निर्विघ्न नहीं जा सकते।
विडंबना यह कि लाकडाउन के दौरान कोरोना के कारण मरने वालों की संख्या सरकार प्रतिदिन जारी करती है, परंतु लाकडाउन के कारण भूख, प्यास और श्रम से मरने वाले मजदूरों की कुल संख्या सरकार के पास नहीं है। हताशा और निराशा के गर्त में जा चुके मजदूरों के प्रति संवेदना शून्य व्यवहार अब सामान्य बात हो गया है। लाठीचार्ज व पुलिस बल के शिकार होने वाले मजदूरों पर साहिर लुधियानवी द्वारा रचित व किशोर दा द्वारा गाया उक्त गीत मजदूरों की दुर्दशा पर आज भी सामयिक है।
भ्रष्टाचार संवैधानिक स्वतंत्रता का अचूक लक्षण
ट्रेन से कटकर मरने वाले मजदूरों के परिवारों को राहत देने सरकार ने 5-5 लाख देने की घोषणा की है, चम्पक ने कहा। घोषणा वीर तत्काल राहत राशि की घोषणा इसलिए भी करते हैं कि ऐसी अशोभनीय घटना से जनाक्रोश न पनपे। बाकी तो मजदूरों का अमूल्य जीवन खत्म हो गया। जीते जी तो 5000 नहीं पाए होंगे, मरे तब उनके पास 500 भी नहीं थे। अब मरणोपरांत पांच लाख उनके दुखी परिवार के अशांत मन को कितना शीतल करेगा? बाबूलाल ने पूछा।
पहली बात तो भाई, क्या आप मानते हैं कि सरकारी मुआवजे की राशि दु:खी परिवार तक समय पर पहुंचती है? इसमें अपवाद हो सकते हैं। मुआवजा पाने भी लंबी मशक्कत, लंबे समय तक करनी पड़ती है और गरीबों में इतना सामथ्र्य नहीं होता। समाज में भ्रष्टाचार, शिष्टाचार बना है। भ्रष्टाचार यह सभी प्रकार के सतही गहरे और सभी प्रकार की अवस्था का एक सनातन झरना है। भ्रष्टाचार यह संवैधानिक स्वतंत्रता का एक अचूक लक्षण है। कहावत है- ‘एक ही उल्लू काफी है, बर्बाद-ए-गुलिस्तां करने को, यहां हर शाख पे उल्लू बैठा है।’तभी तो देश में ऐसा हो रहा है कि बैंकों में एनपीए बढ़ रहा है। विलफूल बैंकों के डिफाल्टर थोक में हैं। ऐसे डिफाल्टर पर राजनेताओं का वरदहस्त रहता है। 45 दिनों के लाकडाउन में ही ग्रोथ रेट शून्य हो गया। गुड़ पर जैसे मक्खियां झूम उठती हैं, वैसे ही ‘फंड’ पर आंखों की भ्रष्ट पुतलियां टिकी रहती हैं। बड़े माथों से करोड़ों की बेनामी संपत्तियां मिलती हैं। विदेशों से अपेक्षित काला धन वापस नहीं आया। देश में हो रहे काले धन के सर्जन पर विराम नहीं लगा है। देश के मिडिल क्लासियों के पास से पसीने का पैसा टैक्स के रूप में ले लेकर नए-नए जांच आयोग के गठन की प्रक्रिया अनेक वर्षों से चल रही है। विभिन्न प्राकृतिक आपदा के फंड में घपला होता है। सरकार का ऐसा कोई भी विभाग नहीं है, जो भ्रष्टाचार से अछूता हो।
रोजाना अखबारों में किन्हीं न किन्हीं विभागों से संबंधित भ्रष्ट मामले सुर्खियों में छपते हैं। 24 घंटे लाइव न्यूज़ चैनल, बकवास न्यूज आइटम के बीच ऐसी खबरें भूल से दिखा देते हैं, परंतु न जाने क्यों इसका कोई असर ही नहीं होता? ‘ऑल इज वेल’ के गीत के साथ जनता को जन्मघुट्टी पिला दी जाती है। यह सब कुछ नया नहीं है। सालों से यह सब चल रहा है और पब्लिक सब कुछ भूल भी जाती है। हमारे देश में भ्रष्टाचार का जो काला टीका हमारे नेताओं ने लगाया है, वह आने वाली पीढिय़ों को विरासत में मिलने वाला है।
शराबबंदी या शराबमुक्ति?
मित्र, चुनाव पूर्व अपने जन घोषणा पत्र में कांग्रेस ने जनता को वचन दिया था कि छत्तीसगढ़ में शराब की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाएगा। केवल बस्तर, सरगुजा जैसे अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा को शराबबंदी का अधिकार होगा। शराबबंदी के दिए वचन से अतिप्रसन्न राज्य की महिला वोटर्स और संभ्रांत बुद्धिजीवियों ने कांग्रेस पर वोटों की वर्षा कर उसे भारी बहुमत से जिताया था। भाजपा तब 15 सीटों पर ही सिमट कर रह गई थी, किंतु अब शासक पार्टी कांग्रेस अपने वचन से मुकर गई है।
देखो चम्पक, तुम्हारा कहना सच है। किंतु, कांग्रेस को जब राज्य की तिजोरी खाली मिली और जरूरी कामों के लिए भी पैसे की कमी की समस्या का सामना करना पड़ा, तब सरकार ने पूर्व की भाजपा सरकार के द्वारा की जा रही शराब बिक्री को चालू रखना ही उचित समझा। यह भी हर कोई जानता है कि शराब बिक्री से हर साल राज्य सरकार को हजारों करोड़ों की आय होती है, बाबूलाल ने कहा।
लेकिन डियर बाबूलाल लाकडाउन के 45 दिन दारू पिए बगैर पियक्कड़ों ने साबित कर दिया था कि वह बगैर दारू के रह सकते हैं। 46 वें दिन जब शराब दुकानें खोलने का आदेश हुआ और पियक्कड़ों का रेला शराब खरीदने ऐसा उमड़ा कि सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ी। बेशक शराब बेचने से सरकार को प्रतिदिन सैकड़ों करोड़ की आमदनी हो रही है, लेकिन महामारी कोरोना का क्या?
चम्पक लाकडाऊन में शराब दुकानों को बंद रखा गया था, किंतु मद्यपान करने वाले को घर बैठे तस्करी की मदिरा मिलती थी। महाराष्ट्र से शहर की सीमा पर तस्कर की दारू को पुलिस ने पकड़ा था और अभी यह मामला पुलिस विवेचना में शामिल है। ठीक कहते हो चम्पक, लेकिन कड़वा सच है यह है कि शराब तस्करी में कांग्रेस के ही बड़े माथे इनवाल्व हैं। अखबारों में खबरें आती हैं। लगता है, उनका बाल भी बांका नहीं होगा। पूर्व भाजपा सरकार में तिकड़मी घोटालेबाज समुन्दर सिंह जिसका करोड़ों का शराब घोटाला उजागर हुआ और तभी से वह ऐसा फरार हुआ कि पुलिस के लंबे हाथ भी उसे पकडऩे में छोटे साबित हुए हैं। वह सपरिवार फरार है और अनुमान है कि दुबई चला गया है। सोनीपत में शराब के बड़े घोटाले बाज भूपेंद्र को ‘सीट’ उच्चस्तरीय जांच एजेंसी ने गिरफ्तार करने में सफलता अर्जित की है। क्या ऐसे ही छत्तीसगढ़ में हुए शराब के महाघोटाले कांड के खलनायक को गिरफ्तार करके उच्चस्तरीय जांच सक्रिय होगी?
शराब, शराबी को पीती है
देखो मित्र, शराब के बारे में कहा जाता है कि ‘पहले आप शराब पीते हैं और बाद में शराब आपको पीती है। कई नादान लोग तो ऐसा भी कहते हैं कि पीते हैं तो जिंदा हैं, ना पीते तो मर जाते।’अब उनको कौन समझाए कि ये जीना भी कोई जीना है लल्लू? सुनो एक वाइफ ने अपने हसबैंड से कहा-बस करो अब आप ऑल रेडी चार पैग पी चुके हो। हसबैंड- चार पैग पीने से मुझे नहीं चढ़ती। देख सामने के टेबल पर चार लोग बैठे हैं, मैं उन्हें ठीक से देख सकता हूं। वाइफ- रहने दो अब अपनी ज्यादा शेखी मत मारो। सामने की टेबल में एक ही आदमी बैठा है।
ऐसे ही शराबी पति को उसकी पत्नी दारु छुड़ाने के लिए योगाचार्य बाबा रामदेव के पास ले गई। बाबा ने दारु छोडऩे की सीख के साथ-साथ योग के आसन भी सिखाए। एक सप्ताह बाद वह महिला बाबा के पास गई, तब बाबा ने पूछा-योग करने से दारू पीने में कोई फर्क आया? महिला बोली- हां बाबा, अब वे पद्मासन में बैठकर दारू पीते हैं।
तात्पर्य यह कि मित्र शराबी तन-मन-धन से बर्बाद हो जाएगा, किन्तु वह शराब पीना नहीं छोड़ेगा। शराब का व्यापार करने वाले इसे बखूबी जानते हैं और इस धंधे में बहुत पैसा पीटते हैं।
पत्रकारों, डॉक्टरों और वकीलों को संरक्षण कब मिलेगा?
बंधु, कांग्रेस ने अपने जन घोषणा पत्र में पत्रकारों, वकीलों और डॉक्टरों के संरक्षण के लिए विशेष कानून बनाने का वायदा किया था, चंपक ने इस ओर बाबूलाल का ध्यान दिलाते हुए कहा कि शराबबंदी नहीं हुई, यह तो समझ में आ गया कि राजस्व वृद्धि करना विवशता थी, किंतु उक्त तीनों वर्ग के बुद्धिजीवियों को संरक्षण देने में राज्य सरकार का कोई पैसा लगने वाला नहीं है। स्पष्ट बहुमत वाली सरकार को केवल सदन में विशेष कानून बनाकर पत्रकारों, डाक्टरों और वकीलों को संरक्षण प्रदान करना है, इसमें विलंब होना समझ से परे है।
ठीक कह रहे हो चम्पक, वायदे अनुसार अभी तक संरक्षण हेतु कानून बन जाना चाहिए था। जहां तक पत्रकारों की बात है तो उसका पेशा 24 घंटे जोखिम से भरा रहता है। समाचार संकलन करना हो, जानकारी लेना हो, वर्र्सन लेना हो, तब उसके जनहित के प्रयास को रचनात्मक नहीं माना जाता। वर्तमान में लाकडाऊन के हालात में अपनी जान जोखिम में डालकर पत्रकार घर बाहर निकलकर अपनी ड्यूटी कर रहा है। समाचारों का माध्यम बने अखबार व न्यूज चैनल, ये सभी साधन जानकारी प्राप्त करने के लिए होते हैं। दैनिक समाचार पत्र की आयु क्षणिक होती है। आधी रात को अखबार का प्रसव होता है। सुबह जन्म का आनंदोत्सव होता है और दोपहर के बाद वह वृद्धावस्था में आ जाता है। फिर दूसरे दिन से अखबारनवीस अपने अखबार को जन्म देने के कर्तव्य में जुट जाता है। साल के 350 दिन निरंतर इसी प्रक्रिया से उसे गुजरना होता है।
वर्तमान में अखबारों के मालिक-प्रकाशक भी आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में सरकार का दायित्व उन्हें इस संकट से उबारना है। प्रिंट मीडिया एक ओर कोरोना से अपना बचाव कर रहा है और संकट की इस घड़ी में प्रतिदिन जानकारी परोस कर सरकार और जनता से अपना संबंध अक्षुण्ण बनाए हुए है।
दो लाइनें-
हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश,
हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं।

-दीपक बुद्धदेव

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