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कमीशनखोरी कल्चर : जाते थे पाक पहुंच गए चीन, समझ गए ना?

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कट मनी या कमीशनखोरी का प्रचलन अब सामान्यत: ‘‘कल्चर’’ में शामिल हो गया है। सो, कमीशनखोरी कैसे करना ? इसमें सीखाने जैसी कोई बात ही नहीं है। कमीशनखोरी की शोध करने ‘‘नोटबंदी’’ हुई थी। नोटबंदी से ही शहरवासी को पता लगा था कि घरवाली ने ही कमीशनखोरी की है। क्योंकि ऐसे कट मनी वाली नोटें बगैर बदले ही रह गई। बाहर की कटमनी एडजस्ट हो गई और घर की कटमनी उजागर हो गई थी।
पड़ौसी देशों के साथ शत्रुता उत्पन्न कर शस्त्रों की खरीदी में होने वाली कमीशनखोरी वर्षो से कुख्यात है। कभी तोपों में तो कभी विमानों में कमीशनखोरी के समाचार पढऩे को मिलते हंै। विदेशी मीडिया ऐसे समाचारों को प्रकट करके देशवासियों को जानकारी देता है। अब प्रबुद्धजनों का चिन्तन यह है कि ऐसी कमीशनखोरी को देशप्रेम कहना चाहिए या देशद्रोह कहना चाहिए? मोर जब अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करता है तब कलाकार कब उसके ‘‘पीछे’’ को लेकर गायब हो जाता है, उसे पता ही नहीं चलता।
तोपें फूटीं, गोला भी दागा गया। किन्तु, तोपेची सोचता ही रह गया कि यह तोपें तो पाकिस्तान की दिशा में फूटनी थी। उसके बदले चीन की ओर क्यों फूट गई? वह भी केवल हवा में ही? जाना था पाकिस्तान, पहुंच गए चीन, समझ गए ना?
इसे जिस किसी ने भी समझा, वह यह कि इसी को ही कमीशनखोरी कहते हैं। इसके लिए बहुत ही सुरक्षित सुनियोजित योजना बनानी होती हैं। कईयों को धंधे में लगाना होता है। बैक डोर से कमीशनखोरी हो जाती है। वैसे केवल खरीददारी में ही नहीं, प्रत्येक विकास में भी कमीशनखोरी होती है।
भूल तो हो गई, अब जाने भी दो
कई लोग ऐसा कहते हैं कि सरकार को आम लोगों से कहीं ज्यादा राज्यों की अधिक चिन्ता है, क्या यह ठीक है बाबूलाल? अरे भई, चिन्ता है, यही महत्वपूर्ण है। किसकी चिन्ता करते हैं? यह महत्वपूर्ण नहीं है। किसी को भी ऐसा नहीं लगना चाहिए कि, सरकार चिन्ता ही नहीं करती, बाबूलाल ने कहा।
चंद दिनों पहले सरकार ने अल्प बचत की ब्याज दर को घटाने की घोषणा की थी। फिर न जाने क्यों केवल एक दिन के बाद ही सरकार ने इस निर्णय में यू-टर्न लेकर हैरत में डाल दिया। यूं तो यू-टर्न कोई चकित करने वाली बात नहीं है। किन्तु, यू-टर्न लेने वाला कौन है? इस पर चकित होने का आधार है। वित्त मंत्रालय द्वारा जानकारी दी गई थी कि ब्याज दर को घटाने का निर्णय भूलवश लिया गया था। जो निर्णय देश की जनता को बेचैन कर दे, ऐसे निर्णय लेने में सरकार को धीरज रखना चाहिए। वैसे तो देश की जनता बहुत सहनशील है। उसकी थिकिंग पाजिटिव ही रहती है।
जनता का चिन्तन रहता है चलों, बेरोजगारी नहीं घटी, गरीबी नहीं घटी, रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल की कीमतें नहीं घटी। किन्तु, हमारी अल्प बचत की ब्याज दर तो घटी। जनता समझौतावादी होती है। ब्याज दर घटायी गई थी। चलों कुछ तो घटाया। भारत को महान बनाने में नेताओं के साथ-साथ जनता की भी बड़ी भूमिका है।
वैसे, अल्प बचत पर ब्याज दर कम करने की घोषणा की भूल बाबत ट्वीटर पर स्वीटली स्वीकार हुआ, यह भी बड़ी बात है। कांग्रेस ने सत्ताधीशों पर यू-टर्न बाबत आरोप लगाया था कि सरकार चला रहे हो या सर्कस? किन्तु मजबूत सरकार को ऐेसे आरोपों से कोई फर्क नहीं पड़ता।
कोरोना की खौफजदा दहशत, चिकित्सा व्यवस्था ऊंट के मुंह में जीरा: प्रशासन कुंभकर्णी नींद में
डीयर कोरोना देर सबेर तो जाएगा ही, परन्तु फिलहाल तो इसके साथ जीना सीखना ही पड़ेगा। यह महामारी तुम्हारे और मेरे जीवन में स्थायी रूप से बड़ा परिवर्तन करने जा रही है चम्पक।
क्या परिवर्तन करने जा रही है? और परिवर्तन का पता तो आने वाला समय बतायेगा। फिलहाल तो शहरवासियों में दहशत फैल गई है। कोरोना से बढ़ रहे मौत के आंकड़ों ने चिकित्सा प्रबंधन और प्रशासन के लूंजपूंज कामों को उजागर कर दिया है। चिकित्सा व्यवस्था ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रही है और प्रशासन कुंभकर्णी नींद में है। सरकारी व निजी अस्पतालों में मरीजों का सैलाब दिखाई दे रहा है। कोरोना के मरीज भगवान भरोसे हैं। सरकारी अस्पताल भी राजनीति का अखाड़ा बनकर रह गया है। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार टेस्ट और वैक्सीनेशन के बाद होने वाली किसी भी तरह की जिम्मेदारी अपने कांधे पर लेने से बचती नजर आ रही है। जिसके नक्शेकदम पर प्रशासनिक अमला भी लापरवाही से बाज नहीं आ रहा है।
ठीक कहा बाबूलाल तुमने। कोरोना के पहले दौर में पहले कहीं कोरोना का संदेही मरीज भी पाया जाता था तो उसे क्वारेंटाईन कर संबंधित क्षेत्र को सीलबंद किया जाता था। होम क्वारेंटाईन किए गए लोगों के घरों-दुकानों को सैनेटाइजर किया जाता था। किन्तु, अब तो वर्तमान में ऐसा कुछ देखने को ही नहीं मिल रहा है।
चम्पक मुझे तो कोरोना के मामलों में आंकड़ों की बाजीगरी हो रही है, ऐसा प्रतीत हो रहा है। उधर, वैक्सीनेशन, आक्सीजन व जरूरी दवाओं की शार्टेज भी बतायी जा रही है। दुर्भाग्य यह कि जितने भी एमडी मेडिसिन डॉक्टर हैं, उन सभी के प्रिस्क्रब्शन में कोरोना की दवाईयां अलग-अलग होती हैं। हालात इतने गंभीर हैं कि पूरा शहर ही रेड जोन में है, लगता है। जिला प्रशासन प्रतिनिधि या किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि को अपना आदमी ‘‘आम नागरिक’’ बनाकर सरकारी अस्पताल में एडमिट कराना चाहिए कि करोड़ों रूपयों का अस्पताल सही में एक आदमी को सेवा दे पा रहा है? जिस उद्देश्य से इसकी नींव रखी गई है। इसकी अव्यवस्था और लापरवाही से लोगों की जानें जा रही हैं। दहशतजदा मरीज प्राईवेट अस्पतालों द्वारा लूटे जा रहे हैं। कई तो मर भी रहे हैं।
जवाबदारियों का दान करने में सेवकगण पारंगत
कोरोना के बढ़ते मामले और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चार सप्ताह तक भारी खतरनाक परिस्थिति की चेतावनी ने 2020 से भी अधिक 2021 को बदत्तर बना दिया है। आपदा बैठक में कलेक्टर ने 10 दिनों का लॉकडाउन लगाया है। इसे आपातकालीन परिस्थिति कह सकते हैं। परिस्थिति जब असामान्य होकर काबू के बाहर हो जाती है, तभी उसकी स्पेशियल वेल्यू मिलती है। जब तक असाधारण परिस्थिति का सर्जन न हो तब तक किसी प्रकार का कदम उठाने में कोई समझदारी नहीं है, ऐसा सरकार भी मानती है। ऐसी परिस्थिति निर्मित होने पर ही ‘‘सरकार’’ ‘‘कड़े से कड़े कदम’’ उठाने का परिश्रम करती है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, वह वास्तव में समझदार होती है। फिजूल और गैर जरूरी परिश्रम करने को कोई भी सरकार मानती है।
संक्षिप्त में यह कि आज की सेवा करने वाले राजनेता, अफसर, धर्मनेता या समाजनेता सब मिलकर ‘‘धन तोड़’’ गोल करने बेचारे ‘‘तनतोड़’’ मेहनत करते होते हैं। जवाबदारियों का दान करने की कला इन सभी सेवकों ने अच्छी तरह से हस्तगत कर ली है। नजर फेर कर मुंह घुमाने के आर्ट को ये सेवकगण स्मार्ट आर्ट कहते हैं। कई तो इस कला को ‘‘बुरा नहीं देखना-बुरा नहीं सुनना’’ जैसे विशाल संदर्भ में देखते होते हैं। यहां ‘‘बुरा’’ का अर्थ याने अपने को पसंद नहीं ऐसा किया जाता है। वास्तव में, अमुक को अलग कर दें तो अधिकांश सेवक अपने स्वार्थ के चेहरे पर परमार्थ का मास्क पहिनकर सेवा की परिभाषा ही बदल देते हैं।
जरूरतमंद व्यक्तियों की जरूरतों को पूरी करने के बदले उनकी जरूरतों को कितनी हद तक मंद बना देते हैं। ऐसे ज्वलंत ज्ञान को समझने के लिए ही इन सेवकों ने ‘‘लॉकडाउन’’ नामक सेवा यज्ञ शुरू कर दिया है।
रोजाना खाने – कमाने वालों का जीवन बना नारकीय
गरीबी, बेकारी, महंगाई और आर्थिक संकट के दौर में ‘‘रोज कमाने व रोज खाने’’ वालों के लिए लॉकडाउन नर्क बन गया है। सब्जी, फल-फलादी, सडक़ों किनारे चाय, खोमचे, मजदूर, घरेलू कामगार, चना-मुर्रा, कुल्फी, बर्फ आदि का परचुरन व्यापार करने वालों की सुध न कोई नेता लेता है, न प्रशासननिक अमला लेता है।
यात्री बसें बंद। शहर बाहर आवाजाही पर प्रतिबंध। मजदूर कमाने-खाने पलायन नहीं कर सकते। शहर-प्रदेश बाहर मजदूरी करने गए श्रमजीवों में फिर गांव वापसी का खौफ। भयजनक माहौल में डर का ऐसा खौफनाक मार्केटिंग जमाने की योजना सफल होती दिखाई दे रही है। लॉकडाउन लगने के दो दिन पहले ही थोक व खुदरा व्यापारियों की मुनाफाखोरी पराकाष्ठा पर रही।
दुनिया धंधेबाज है। पैसा ही उनका परमेश्वर और पैसा ही उनका दास है। दवाओं का बाजार दलालों ने पहले ही गर्म कर दिया है। कोरोना कोई भूत नहीं है। जो किसी को पकड़ ले तो उसकी आत्मा शरीर से फुर्र हो जाए। मल्टी नेशनल दवा उद्योगों का खेल किसी क्रिकेट के आई.पी.एल. खेल से कम नहीं है। राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में ‘‘बिकने और खरीदने’’ वालों की लाइन लगी है।
कामचोर सरकारी मुलाजिमों के लिए लॉकडाउन ‘‘सोने पे सुहागा’’
दस दिनों के लॉकडाउन में कलेक्टर ने सरकारी दफ्तरों को भी बंद रखने का ऐलान किया है। इसे यंू भी कह सकते हैं कि जिला प्रशासन प्रत्यक्ष में अवकाश पर चला गया है। सरकारी मुलाजिमों के लिए यह ‘‘सोने में सुहागा’’ होने वाली बात है। ज्यादातर सरकारी मुलाजिम कामचोर ही होते हैं। फिर ऐसा कोई सरकारी फरमान मिल जाए तो पूछना ही क्या है? ‘वर्किंग डे’ में यूं भी अफसर आफिस में मिलते ही नहीं। कोई न कोई बहाना बनाकर आफिस से गायब ही रहते हैं। बहाना साहब मिटिंग में हैं, दौरे पर हैं। केवल पांच मिनट के लिए आए थे। बड़े साहब का फोन आया और चलते बने। वे आफिस में काम न करने के निष्काम कर्म को अबाध गति से जारी रखते हैं। कई बार तो इन को इन के काम न करने के काम को पूरी लगन से करते देख लगता है कि मानो विभाग ने इन की भरती काम न करने के लिए और औरों को परेशान करने ही के लिए ही की है। आफिस केवल हाजिरी रजिस्टर में हाजिरी भरने ही आते हैं, अब इसे कामचोरी न कहा जाए तो क्या कहा जाए ?
ऐसा भी खास कर तभी होता है जब जिला प्रशासन में प्रशासनिक दक्षता का अभाव होता है। वास्तव में अब जनता कामचोरों को मुफ्त खिलाते-खिलाते थक गई है। टालरेट करने की भी एक सीमा होती है। कामचोरों को घर का रास्ता नहीं दिखाया गया तो कभी भी जनाक्रोश फूट सकता है। कम से कम सांड पर नकेल न कसे तो न सही, पर उसकी नाक में नकेल डालने के लिए सुराख तो किया ही जा सकता है।
कोरोना-लॉकडाउन ने ‘‘वर्क फ्राम होम’’ की शोध की है। शोध कर्ता निश्चय ही काबिले तारीफ है। किन्तु, जब किसी को ‘‘वर्कलेस’’ में ही मजा मारना हो तब उनके लिए यह शोध यूजलेस है।
शकील बदायुनी का एवरग्रीन फिल्मी सांग प्रासंगिक और गौरतलब-
भगवान…… भगवान….. भगवान!
ओ दुनिया के रखवाले,
सुन दर्द भरे मेरे नाले
ओ दुनिया के रखवाले……
आस-निराश के दो रंगों से
दुनिया तूने रचाई
नैया संग तूफान बनाया,
मिलन के साथ जुदाई
जा देख लिया हरजाई,
ओ लूट गई मेरे प्यार की नगरी
अब तो नीर बहा ले……. ओ दुनिया
शहर उदास और गलियां सूनी,
चूप-चूप हैं दीवारें
लोग क्या उजड़े, दुनिया उजड़ी,
रूठ गई हैं बहारें
हम जीवन कैसे गुजारें
ओ मंदिर गिरता फिर बन जाता,
दिल को कौन संभाले?
ओ दुनिया के रखवाले…..
– दीपक बुद्धदेव

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