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आक्सीजन पाने की मारामारी और खफा हुई अदालतें

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हर रोज कोरोना के केसेज बढ़ रहे हैं! उसी के साथ बाबूलाल नई नई समस्याएं भी सामने आ रही हैं। क्या किसी ने कल्पना की थी कि देश में आक्सीजन की कमी हो जाएगी? अस्पतालों में आक्सीजन की शार्टेज है। कई निजी अस्पतालों में कोरोना के मरीजों को कह दिया गया कि आक्सीजन का प्रबंध करो। घर पर ही क्वारेन्टाईन होकर इलाज करवा रहे मरीजों के लिए आक्सीजन कहां से लाना? यह समस्या आ पड़ी। आक्सीजन पाने लोग इधर-उधर भटकते दिखे। क्रूर व संवेदनाहीन व्यापारियों के द्वारा आक्सीजन, रेमीडीसीवर इंजेक्शन, दवाओं में भारी मुनाफाखोरी की जा रही है। निजी अस्पतालों व पैथालाजी लैबों में लूट मची है। निजी अस्पतालों में भी डॉक्टर ओपीडी में मरीजों से मनमानी फीस ले रहे हैं, पर्चियों में टेस्ट लिख रहे हैं, अधिकाधिक दवाएं लिखकर मोटा कमीशन जेब भीतर कर रहे हैं, चम्पक बड़ा उदास था। देख भाई, किसी को ठगकर या लूटकर पायी हुई रोटी मीठी जरूर लगती है किन्तु मुंह में रेती रह जाती है, यह बाईबिल में लिखा है, बाबूलाल ने कहा।
अचानक देश में आक्सीजन की कमी कैसे हो गई? कौन कहां धोखा खा गया या उससे कहां चुक हो गई? आज समय पर आक्सीजन नहीं मिलने से लोग बेमौत मर रहे हैं। क्षण भर में ही मरीज की सांसे रूकने लगती हैं। यह स्वाभाविक है कि कोरोना के कारण आक्सीजन की डिमाण्ड बढ़ गई है, शहरवासी का कहना था।
उसने कहा- मेडिकल आक्सीजन प्रत्येक देश की प्राथमिकता है। सरकार ऐसा दावा कर रही है कि आक्सीजन की कमी नहीं होने देंगे। आक्सीजन के मुद्दे पर देश में राजनीति भी खेली जा रही है। राजनीतिज्ञों को कौन समझाए कि यह विकट समय राजनीति करने का नहीं है। लोगों की जिन्दगी बचाने का है। आरोप-प्रत्यारोप से परे रहकर, राजनीति को दरकिनार कर जिन्दगी बचाने का फर्ज निभाएं, यह जरूरी है। हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र सरकार पर तल्ख टिप्पणी की है कि उधार मांगे, विदेशों से मंगवाए अथवा तो चाहें जो करें किन्तु मरीजों को मरने न दे, यह हमसे नहीं देखा जाता।
इसी के बाद से मित्रों केन्द्र सरकार काम पर लग गई है। विदेशों से आक्सीजन मंगवायी जा रही है। ट्रेनों-विमानों-वाहनों से सरकार राज्यों में आक्सीजन भेजने का काम युद्धस्तर पर कर रही है।
खुली हवा की आक्सीजन शुद्ध नहीं
चम्पक ने जिज्ञासावश पूछा कि हम जो जन्म से लेकर आज तक जो सांसे ले रहे हैं, क्या वह आक्सीजन नहीं है? तब शहरवासी ने समझाया कि हम जो खुली हवा में सांसों के माध्यम से जो आक्सीजन ले रहे हैं, वह आक्सीजन अशुद्ध है। उसमें धूल, अन्य रजकण जैसा बहुत कुछ होता है। विशेषज्ञों के मत अनुसार हवा में आक्सीजन की मात्रा केवल 21 फीसदी होती है। कोरोना या अन्य मरीजों के लिए खुली हवा अपर्याप्त होती है।
मेडिकल आक्सीजन से ही जिन्दगी बचायी जा सकती है। क्योंकि, उसमें 98 फीसदी आक्सीजन शुद्ध होती है। सरकार ने मेडिकल आक्सीजन को अति आवश्यक दवाओं की सूची मेें शामिल किया है। प्रत्येक बड़ी अस्पतालों में प्रत्येक बेड के नजदीक आक्सीजन का पाइप होता ही है। अस्पतालों के गलियारों में ही आक्सीजन टैंक लगा होता है। आक्सीजन प्लान्ट से आने वाले लिक्विड आक्सीजन को इस टैंक में डाला जाता है और यह पाइप जरिए मरीजों के बेड तक पहुंचता है। पहले सामान्यत: आक्सीजन की मांग 1000 से 1200 मेट्रिक टन थी। जो अब कोरोना महामारी के कारण इसकी डिमांड बढक़र 5000 मेट्रिक टन हो गई है। सिलेन्डर में जो आक्सीजन होती है, वह गैस के रूप में होती है।
जो हुआ, सो हुआ…… अब तो जागें!
कोरोना के आंकड़े दिन-प्रतिदिन बदल रहे हैं। लगता है, इतिहास अपने को दोहरा रहा है। जो स्थिति 22 मार्च 2020 के दिन थी, उसी स्थिति पर फिर हम आ गए हैं। भय और असुरक्षा के बीच फंसी लोगों की जिन्दगी थम सी गई है। विपक्ष और मीडिया इसके लिए सरकार को जवाबदार ठहरा रहे हैं।
चुनावों में रैलियां निकलती हैं। क्रिकेट मैच खेला जाता है। स्टेडियम खचाखच भरा रहता है। किन्तु, उत्तरायण, होली नहीं मना सकते। मंदिरों के पट बंद, मस्जिदों में नमाज नहीं, किन्तु, सहनशील आदमी कुछ पूछने को तैयार नहीं है। इसे भी हर कोई जानता है कि चुनाव के दौरान इक_ी हुई भीड़ में किराए के लोग ही अधिकांश होते हैं। देश में भेडिय़ा धसान रिवाज बन गया गया है। आगे चलने वाली भेड़ के पीछे अन्य भेड़ें भी चलने लगती हैं।
चलो जो हुआ सो हुआ। ऐसा क्यों हुआ? इसकी तहकीकात भी हम स्वयं करें। कोरोना के आंकड़े नि:संदेह बढ़े हैं। किन्तु, बिगड़े हालात को काबू में किया जा सकता है। नए सिरे से अब भूल न हो, इसका ख्याल रखना है। थोड़ा नहीं, बहुत जागरूक रहना है। कोरोना बाबत अफवाह फैलाने वाले, उसकी अवहेलना करने वाले लोगों को जगाएं। पिछले एक साल से कोरोना ने हर किसी को बहुत ही परेशान किया है। अब इस जद्दोजहद से मुक्त होने का प्रयास करें। यह प्रयास भी हम ही को करना होगा, इतना समझ लें।
नेताओं की चिन्ता से क्या जनता चिन्तामुक्त हो जाएगी?
देश के शीर्ष नेता से लेकर राज्यों के भी शीर्ष नेता कोरोनाकाल में चिन्ताग्रस्त हैं, चम्पक ने कहा। तो क्या चम्पक अब यह मान लें कि नेताओं की चिन्ता करने से अब जनता चिन्तामुक्त हो जाएगी। बाबूलाल ने अपनी हाजिर जवाबी दिखाई।
देखो मित्र, चंद दिनों पहले एक न्यूज चैनल में एक पत्रकार ने एक नेता का इन्टरव्यू लेने उन्हें फोन किया। फोन रिसीव करने वाले ने वस्तुस्थिति जानने के बाद कहा कि साहब आज नहीं, कल इन्टरव्यू के लिए टाइम देंगे। पत्रकार ने पूछा-आज क्यों नहीं? आज इन्टरव्यु हो जाता है तो कोरोना बाबत उनके विचार जान लेते। जवाब मिला-साहब तो फूर्सत में हैं किन्तु, कोरोना महामारी को किस प्रकार नियंत्रित करना चाहिए? उसकी चिन्ता की पूर्व तैयारी कर रहे हैं। पत्रकार ने चकित होकर पूछा- चिन्ता करने की पूर्व तैयारी कर रहे हैं? बड़ी गजबनाक बात है। मैं कुछ समझा नहीं।
तब जवाब मिला कि कुछ दिनों पहले साहब ने इसी मुद्दे को ध्यान में रखकर एक न्यूज चैनल को इन्टरव्यू दिया था। उसके बाद, सोशल मीडिया में उनकी बड़ी आलोचना हुई थी। जिसका कारण यह था कि इतने बड़े गंभीर मुद्दे के इन्टरव्यू में भी नेता जी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। चेहरे पर चिन्ता या टेंशन की कोई लकीर ही नहीं थी। इसी के बाद से नेता जी बहुत सचेत हो गए हैं। अब किसी से भी किसी भी मुद्दे पर बात होती है तो वातावरण की गंभीरता को समझते हुवे चिन्ताग्रस्त दिखाई देने का अभ्यास कर रहे हैं।
भारत में प्रतिदिन जानकारी मिलती है कि कोरोनाकाल ने बड़ी तादात में लोगों को काल के गाल में ले लिया। कई नासमझ लोग इस संदर्भ में सरकार और राजनीतिज्ञों की आलोचना करते हैं कि कोरोना के कारण इतनी ज्यादा मौते हो रही हैं, नेता लोग क्यों कुछ नहीं करते?
तब समझदार लोग कहते हैं कि ऐसा प्रश्न मत करो। जरा गौर करो। नेताओं के माथे पर कितनी चिन्ता की लकीरें हैं? एक नेता ने तो चिन्ता करने के लिए एक नया ही प्रोजेक्ट युद्धस्तर पर तैयार किया है। जिसमें किसी प्रकार की चिन्ता करने से कोरोना को काबू में लाया जा सकता हैं? यह है।
देखो मित्र, तुम्हारे-हमारे जैसा कोई आम आदमी चिन्ता करेगा तो कोरोना पर उसका कोई असर नहीं होगा, यह स्वाभाविक है। क्योंकि, आम आदमी की चिन्ता के मायने कुछ नहीं होते। किन्तु, खास आदमी जब चिन्ता करने लगता है तब उसका इतना ज्यादा प्रभाव पड़ता है कि कोरोना को अपनी चिन्ता होने लगती है।
संक्षेप में यह कि जनता को मास्क पहिनना ही है, सोशल डिस्टेंस रखना ही है और सेनेटाइजर से जब तब 20-20 सेकंड तक हाथ धोने की नैतिक जवाबदारी को चालू रखना ही है। इसी के साथ चिन्ता पर बिल्कुल ब्रेक लगाना है, क्योंकि नेताओं ने अब युद्धस्तर पर जनता की चिन्ता करना शुरू कर दिया है।
भाजपाइयों ने धरना दिया, ऐसी नौटंकी अब जनता को रास नहीं आती
कोरोना से एकजुट होकर लडऩा पड़ेगा, यह केन्द्र की भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कह रहे हैं। नि:संदेह प्रधानमंत्री का संदेश सौ फीसदी सही है। यह समय बहुत विकट और कसौटी का है। बुद्धिशालियों की परीक्षा संकटकाल में होती है। राजनीतिज्ञों को बुद्धिजीवी वर्ग का माना जाता है।
कोरोना महामारी की विभित्षिका से आम जनता की आंखों में अंधेरा छाया है। ऐसे विकट व संकट के समय राजनीतिज्ञों को जनसेवारूपी एक दीपक प्रज्जवलित करना चाहिए। फिर वे सत्तापक्ष के हो या विपक्ष के? बाबूलाल के इस कथन का समर्थन करते हुवे शहरवासी ने कहा- हां मित्र, बिल्कुल सही कह रहे हो। लेकिन जिले में भाजपाईयों ने सत्तासीन कांग्रेस पर इस संक्रमण काल में निष्क्रियता और गैर जवाबदारी का आरोप लगाकर तीन घण्टे का धरना दिया। यह धरना भी घर पर दिया। चंद इक्का-दुक्का नेताओं को अलग कर दें तो बाकी नेताओं ने अपने घर भीतर ही धरना दिया। ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा?’’ वाली कहावत यहां चरितार्थ होती है। होना तो यह चाहिए था कि संकट के इन दिनों में भाजपाइयों को जनसेवा कर उनका हितेच्छु बनना था। कोरोना ग्रस्त लोगों का जीवन जीवन-मृत्यु के बीच झूल रहा है। आज अस्पतालों में पर्याप्त बेड नहीं, बेड हंै तो जरूरी प्राणवायु आक्सीजन नहीं, वेन्टीलेटर नहीं। जरूरी दवाओं-इंजेक्शनों का टोटा है। लाचार गरीबों को भरपेट भोजन नसीब नहीं। मूकप्राणियों को ईश्वर भरोसे छोड़ दिया है। अपने सर्वोच्च नेता मोदी जी की बात मानकर भाजपाई कोरोना से लडऩे जन उपयोगी -हितैषी कार्य करें। जनता को अब ऐसी सस्ती धरने-बंद जैसी राजनीति रास नहीं आती। वह इसे केवल राजनैतिक नौटंकी मानते हैं। बहु जनमत से 15 साल तक सत्तासुख भोगने वाले भाजपाईयों से पीडि़त जनता को बहुत अपेक्षाएं हैं।

  • हिसार के युवा कवि कुमार रविन्द्र ने कहा है-
    अपनी बीती क्या कहें?
    वही पुरानी बात
    सूरज लेने आए थे,
    मिली सुलगती रात।
    – दीपक बुद्धदेव

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