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परिवार फादर का ही नहीं, गाड फादर का भी होता है!

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कोरोना, टाक्टे, ब्लैक फंगस, यास, लॉकडाउन, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सिलसिलेवार मौतें, वैक्सीन-आक्सीजन पर हो रही ओछी राजनीति, चुनावी कुरूक्षेत्र का महाभारत, बदलापुरी राजनीति जैसे राष्ट्रीय अनिष्टों पर कैसे विजय मिलेगी? बाबूलाल की हताशा पराकाष्ठा पर पहुंच गई थी। वह अच्छे समाचारों को सुनने बेताब था। तभी टी स्टाल वाला आया और उसे पेड़े दिए और कहा भैया मुंह मीठा करो। मेरा लडक़ा ग्यारहवीं में चला गया। इसके लिए मैं कोरोना को धन्यवाद कर रहा हूं। पढ़ाई में उसे कोई इन्टरेस्ट नहीं था। उसे स्कूल जबर्दस्ती भेजना पड़ता था। यह समाचार अच्छा था या बुरा, वह समझ ही नहीं पाया। खैर, यह उसका पारिवारिक मामला था।
शहरवासी बोला-मित्र, परिवार बाबत तो हमारा देश वैदिक काल से पारिवारिक भावना से जुड़ा देश है। यू नो, गत शनिवार को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस था। कुछ लोगों ने मनाया और कुछ ने नहीं मनाया। नहीं मनाने वाले ‘‘कुछ’’ विभक्त परिवार थे। कईयों को तो यह भी समझ में नहीं आता कि ‘‘परिवार’’ किसे कहते हैं? किसी के फादर होते हैं तो किसी के गाडफादर होते हैं। गृहस्थ परिवार के पत्ते बिखरे मिलते हैं। समाज का ऐसा एक भी क्षेत्र नहीं होगा, जहां परिवार का पर्यावरण देखने व अनुभव में नहीं आता होगा। वैसे, कई परिवार केवल दृश्यमान होते हैं। अनुभूति के साथ उसका कोई संबंध नहीं होता।
व्यापारिक, औद्योगिक, सामाजिक परिवारों में कर्मस्थ परिवार होते हैं। जैसे कि कारपोरेट कम्पनी का स्टाफ परिवार, शैक्षणिक क्षेत्र का स्टाफ परिवार और राजनीतिक क्षेत्र के विभिन्न गोत्र वाली राजनैतिक पार्टियां। हमारे देश में परिवार की व्याख्या-परिभाषा, पारिवारिक भावनाओं में भी विभिन्नता देखने को मिलती हैं।
एक शैक्षणिक संस्था का प्राचार्य अशिक्षित है, किन्तु वह संस्था के ट्रस्टी का लाडला बेटा है। यह पारिवारिक भावना का परिणाम है। एक सामाजिक संस्था में पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रस्टी के परिवारिक सदस्य ही योग्यता न होने के बावजुद अध्यक्ष बनते हैं। इसे वे अपना मूलभूत अधिकार मानते हैं। यहां क्षमता व योग्यता को लेकर कोई सवाल ही नहीं करता। बस पारिवारिक भावना टिकनी चाहिए। फिर भले ही उस पीढ़ी का उठावना हो गया हो।
ठीक कह रहे हो शहरवासी, राजनीतिक क्षेत्र में परिवार-दिवस मनाने की भावना बड़ी बलवती होती है। इतनी प्रबलता समाज के किसी अन्य क्षेत्र में शायद ही कहीं देखने को मिले। इस लोकतांत्रिक देश में प्राय: प्रत्येक राजनैतिक दलों में पारिवारिक भावना विद्यमान रहती है। पार्टी नेता का कार्यक्षेत्र भले ही राज्य तक सीमित हो किन्तु उसकी पारिवारिक भावना का क्षेत्रफल बहुत बड़ा होता है। कई लोग ऐसे विशाल और विराट पारिवारिक भावना को वंशवाद के नाम से भी जानते हैं।
चम्पक-देखो मित्र, यह तो ठीक नहीं है। वंश है, तभी उसमें वाद शब्द जुड़ा है। वंश ही नहीं होगा तो वाद ही कहां से होगा? फिर तो उस पर न विवाद हो सकता है और न ही संवाद हो सकता है। हमारे देश की राजनीति देश आजाद हुआ तभी से एक अनोखे पारिवारिक प्रेम के सांचे में ढली हुई है। यह प्रेम का सांचा बहुत टिकाऊ व मजबूत है। तोडऩे वाले फिर अनथक प्रयास क्यों न करें? सफल ही नहीं होते।
राजकीय पारिवारिक भावना बाहर से भले ही शुष्क लगती हो किन्तु भीतर से बड़ी मृदु और मुलायम लगती है। पारिवारिक भावना लिए ऐसी राजनीति ही राजनेताओं को एक दूसरे के साथ अटूट, अकूत व अनोखे प्रेम बंधन से जोड़े रखती है। बाहर से भले ही एक दूसरे की प्रतिद्वंदी पार्टियां दुश्मनों जैसा व्यवहार करें, फिर वह सत्तापक्ष हो या विपक्ष हो, एक दूसरे पर प्रहार करते दृश्यमान हो। किन्तु भीतर से वे पारिवारिक भावना का आनंद लेते हैं। वे सामने प्रत्यक्ष जो दिखाई देते हैं, वह जनसेवा दिखाने का एक भाग होता है। पारिवारिक सेवा का भाग अदृश्यमान होता है। सच्ची सेवा भी यही है जो अदृश्य हो, ऐसी सेवा का आत्मदर्शन होते रहता है। ‘‘फादर’’ का परिवार दिवस और ‘‘गाडफादर’’ के ‘‘परिवार दिवस’’ में अन्तर है। दोस्तों, फादर का परिवार रेवडिय़ां नहीं देगा। वह ठोस सपना बतायेगा और उसे आकार देने में जूट जाएगा। फादर का परिवार आप की भावनाओं से नहीं खेलेगा। गाडफादर याने राजनैतिक आका अपने परिवार के निष्ठावान कार्यकर्ताओं के भविष्य के साथ इतनी हद तक खिलवाड़ करता है कि उस भक्ति से ओतप्रोत कार्यकर्ताओं को समझ ही नहीं आता कि कब उसके साथ खेल हो गया।
नारात्मक संस्कृति से काम चल जाता है फिर काम करने की जरूरत ही क्या
देश में नारों याने सूत्रों का राजनीति मेें बहुत महत्व है। इसीलिए भारतीय जनता की नारात्मक सेवा करने विभिन्न दलों के राजनीतिज्ञ सदैव तत्पर रहते हैं, जो काबिले तारीफ है। राजसेवारत नेता इसे बखूबी जानते हैं कि भीषण गर्मी में जनता की प्यास भले ही न बुझे, किन्तु ‘‘जल ही जीवन है’’ के नारे के नाम पर लाखों करोड़ों की वर्षों पहले शुरू हुई अमृत मिशन योजना, नल जल योजना आज भी अपूर्ण है। उक्त योजनाओं के नाम का मंगलसूत्र जनता के गले में डाल दिया है और भावुक जनता इससे सन्तुष्ट और खुश होकर इसे नेताओं की संवेदनशीलता समझती हैं।
विडम्बना यह कि भोली जनता सूखे कंठ और भूखे पेट होने के बावजुद नेताओं की वाहवाही करती है। इसका बखूबी ख्याल नेताओं को पहले से ही रहता है। हमारा देश भले ही 21वीं सदी से गुजर रहा है। अगर यह 25वीं या 50 वीं सदी तक भी पहुंच जाए तब भी उसकी भावुकता और संवेदनशीलता वैसी ही रहेगी जैसी आज है। क्योंकि हम भारतीयों की यही पहिचान है।
कुछ सालों पहले ‘शाइनिंग इंडिया’ और ‘फील गुड’ नामक दो नारात्मक मंगलसूत्रों को गरीब व लाचार जनता के गले में पहिना दिया गया था। उस समय जनता को क्या ‘गुड फिल’ हुआ था, वह आज तक कोई नहीं समझ सका। लगभग सात साल पहले जुमला लिए नारा था ‘अच्छे दिन आयेंगे’। विडम्बना यह कि उस समय जनता जो कुछ भी ‘अच्छा’ अनुभव कर रही थी, वह भी चलते बना और आज जनता बुरे दिनों से गुजर रही है। राजनीतिज्ञ जनता की नाड़ी को परखने में किसी वैद्य जितने ही पारंगत हैं। उनके हाथों में ऐसी जादुई छड़ी आ गई है कि काम करने की जरूरत ही नहीं, केवल शब्दों के बाणों से ही मनचाहा काम हो जाता है।
नारों और वचनों का चमत्कार
राज्य में ‘किसान जीतबो, छत्तीसगढ़ जीतबो’ का नारात्मक जादू ऐसा चला कि आज यहां कांग्रेस का राज है। इसी के 36 लक्ष्यों को वेधने का संकल्प लिया गया था। जिनमें घर-घर रोजगार, हर घर रोजगार, स्वास्थ्य का अधिकार, शराबबंदी, सिंचित क्षेत्र दोगुना, फुड पार्क, लोकपाल अधिनियम, नक्सल समस्या, विद्यार्थियों को सुविधाएं, विशेष सुरक्षा कानून जिसमें पत्रकारों, वकीलों और डाक्टरों के लिए विशेष कानून बनाने का वचन था। ‘वचंन कि दरिद्रति’ न कहें तो इसे क्या कहें? पांच साल में तो ढाई साल होने को आए। वचनों के पालन नहीं होने से जनता भी ठगा सा महसूस कर रही है।
देखो मित्रों, एक नारा आजकल बहुत सुनाई देता है और वह है ‘सबका साथ-सबका विकास’। एक भोला आम इंसान तो इस नारे को सुनकर इतना खुश हो गया था कि उसने पूरे मोहल्ले में दस किलो पेड़े बांट दिए। बाद में जब जलाराम वालों ने बिल दिया और पैसा मांगा तो उसने एक पेड़ा बिल लाने वाले को खिला दिया। फिर बोला-काहे का पैसा? क्या मेरे अकेले का विकास होगा? तुम्हारा भी तो होगा। ‘सबका विकास’ में तो जलाराम वाले भी आ गए?
अब बताओं दोस्तों, इस नारे से राजनीतिज्ञ और उनके दल को तो संजीवनी ही मिल गई थी। निराशा के कगार पर पहुंच चुके निचले छोर के आदमी को भी आशा की उजली किरण दिखाई दी थी। इस तरह की क्षमता हमारे देश में ‘नारों’ में छिपी है और समय-समय पर इसका फायदा राजनैतिक दलों को मिलते आया है।
समय कटे भी तो कैसे ?
मृत्यु न हो जाए तब तक जीवन है और जीवन है तब तक आशा है। किन्तु आशा भी निराशा में तब्दील से गई है। संकटकाल में समय थम सा गया है। लम्बे लॉकडाउन ने किराना, दवाओं के व्यापारियों को अलग कर दें तो अन्य व्यापारियों को अब तक लाखों का नुकसान हो चुका है। किराए पर लेकर दुकानदारी करने वालों के तो हाल ही बेहाल हैं। वहां कार्यरत नौकरों की कभी की छुट्टी कर दी गई है। नौकरी से अलग किए गए लोगों के पास न पैसा है, न काम। दैनिक मजदूरों की जिन्दगी तो रहनुमाओं पर निर्भर है। कोरोना काल में शादियां टल गई। एक शादी कईयों को रोजगार देती थी। कपड़ा व्यापार बंद है। सर्राफा बाजार बंद। रेस्टॉरेंट-होटलें बंद। छिटपुट कंस्ट्रक्शन के काम चल रहे हैं। सरकार का दारू व्यापार वैध-अवैध तौर तरीकों से गर्म है। पियक्कड़ों को शराब महंगे दामों में उपलब्ध हो रही हैं। श्रद्धालुजनों को अफसोस यह कि मंदिरों के द्वार बंद हैं। गरीबों को थोड़ी राहत यह कि उन्हें राशन दुकानों से दो माह का राशन मिला है। तन-मन से दु:खीजन समय कांटे भी तो कैसे?
निदा फाजली का कहा गौरतलब-
जाने क्या उनकी निगाहों ने कहा है हमसे,
आजकल शहर में हर कोई खफा है हमसे,
काश वो एक नहीं होते, बहुत से होते
जिनको मिल न सके, उनको गिला है हमसे।
– दीपक बुद्धदेव

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