गत दिनों प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम ने कहा था कि राजनांदगांव जिले के महाराष्ट्र सीमा के पास स्थित सडक़ चिरचारी के समीप वन विभाग के डिपो में विभिन्न प्रदेशों से आए लगभग 600 दिहाड़ी मजदूरों को सुविधाएं दी गई हैं। प्रतिदिन जीवन जरूरी वस्तुओं के साथ नाश्ता भोजन आदि भी उपलब्ध कराया जा रहा है। पी.सी.सी. अध्यक्ष मरकाम ने राहत शिविर का अवलोकन भी किया। लेकिन, बाहर के अन्य प्रदेशों से आए ऐसे हजारों की तादात के दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति बहुत दयनीय है। राहत के भरोसे वे कब तक अपने गांवों व घरों से दूर रहेंगे? वे मानसिक रूप से बेहद प्रताडि़त हैं।
ऐसी गंभीर परिस्थिति में यह चिन्तन आवश्यक हो जाता है कि देश के विभिन्न शहरों में फंसे लाखों मजदूर अपने गांव-घर वापस पहुंचे हैं या नही? देश में लाकडाउन के कारण सभी राज्यों शहरों के बीच एक लक्ष्मण रेखा है। भौगोलिक स्थगितता का सर्जन हुआ है। फलस्वरूप, देश भर में देश का एक बड़ा श्रमिक वर्ग अनेक जगहों में फंसा हुआ है। सरकार का ध्यान तो इस ओर गया है, किन्तु मजदूरों का भटकना अभी बंद नहीं हुआ है। देश में मजदूरों की टुकडिय़ां विभिन्न प्रदेशों में काम कर रही हैं। रोज कमाना और रोज खाना यनि हैण्ड टू माऊथ यही उनकी दिनचर्या है। इस कारण वे लोगों की नजरों से लुप्त रहे हैं। मजदूर भी अपने घर-परिवार के मुखिया होते हैं। ‘‘घर’’ को दुनिया का छोर कहा जाता है। व्यक्ति चाहे बाहर कितना भी घूम ले, अनेक दिनों तक बाहर रहे, किन्तु असली शकुन और शान्ति तो उसे अपने घर में पहुंचने के बाद ही मिलती है। फिर भले ही वह छोटा और असुविधाजनक क्यों न हो। दु:खद यह कि आज भी सरकार के पास कामकाज की तलाश में अपने गांवों से पलायन कर चुके मजदूरों का स्टेटेस्टिक्स तैयार नहीं है। इसके अलावा प्रदेशों के किसी भी जिले के कलेक्टर के पास इसकी मार्गदर्शिका नहीं है। उनके कार्याधीन क्षेत्र में फंसे अलग-अलग मजदूरों को उनके गांवों तक किस प्रकार पहुंचाना चाहिए? जैसे- जैसे लाकडाउन के दिन आगे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे अपने घरों से दूर मजदूरों के हालात बिगड़ रहे हैं। उन्हें स्वाभाविक रूप से अपने परिवार की चिन्ता सता रही है। किन्ही भी स्वायत्त संस्थाओं या सरकारी प्रबंधन द्वारा उन तक भोजनादि वस्तुए पहुंचायी जाती है, वह बात अलग है। भारतीय संस्कार में यह अपेक्षित भी है। किन्तु, अब भारतीय मजदूर अपने मूल गांव तक कब पहुंचेंगे? यह एक यक्ष प्रश्न है।