महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने इस मई माह के अंत तक राज्य को कोरोना मुक्त करने की घोषणा की है। उन्होंने विडियो कान्फ्रेन्स के जरिए मंत्रालय स्तर से लेकर जिले स्तर के अधिकारियों से कोरोना विषयक विस्तार पूर्वक चर्चा कर उन्हें इस संकट से उबरने निर्देश दिए। जिसमें उन्होंने मुंबई, थाणे और पूणे में सख्तीपूर्वक लाकडाउन के नियमों का पालन करवाने के लिए कदम उठाने कहा है। मुख्यमंत्री ने अपने आदेश पर तत्काल कदम उठाने के लिए सूचित किया है। जो व्यक्ति स्वैच्छापूर्वक घरों में नहीं रहते, उन्हें अब अनिवार्यत: घरों में ही रहना होगा। मुंबई में रात्रि 8 बजे से सुबह के सात बजे तक के कफ्र्यू पिरियेड में घरों में ही रहना पड़ेगा। इसके लिए पुलिस को सख्ती बरतने के भी निर्देश दिए हैं। केन्द्र सरकार ने भी रेड जोन में रात्रि सात बजे से सुबह सात बजे तक घर में ही रहने के निर्देश दिए हैं। साथ ही, यह भी कहा कि राज्य सरकारें आवश्यकता अनुसार समय और अन्य जरूरी कदम अपने विवेक अनुसार उठा सकते हैं। केन्द्र ने राज्य सरकार को मार्गदर्शन देने केन्द्रीय टीम को भी भेजा है। पूरे देश भर में एक ही चर्चा है कि कोरोना को नियंत्रित करने के लिए सिलसिलेवार अब लाकडाउन तीन पर अमल हो रहा है। सोशल डिस्टेसिंग पर विशेष बल दिया जा रहा है। देशवासियों को जीवन जरूरी वस्तुएं किराना, अनाज, दवाइयां, दूध लाकडाउन में भी मिलती रहे, इसके लिए उक्त वस्तुओं से संबंधित दुकानों को खोलने की छूट दी है। इसी के साथ, इन दुकानों में भी सोशल डिस्टेसिंग का जोर दिया है। जिन दुकानदारों ने सोशल डिस्टेसिंग का पालन नहीं किया, उन दुकानों को निरीक्षण के दौरान वहां के शीर्ष अधिकारी ने उनकी दुकानों को सील कर दिया। किन्तु, अब जब शराब दुकानों को खोलने की छूट दे दी गई है तब मदिरा पान करने वालों का हुजूम ऐसा उमड़ा है कि सोशल डिस्टेसिंग की धज्जियां उड़ गई है। सरकार का शराब दुकानों को खोलने के पीछे का उद्देश्य उन्हें राजस्व अर्जित करना है। याने कि सरकार को अपनी तिजौरी में धन चाहिए। लाकडाउन में किराना-दवा, सब्जी, दूध को छोडक़र कपड़े, ज्वेलरी, इलेक्ट्रानिक आदि वस्तुओं की दुकानों को बंद रखने कहा गया था। क्या तब उन व्यापारियों को पैसे कमाने की लालसा नहीं थी? सरकार जब पैसे कमाने शराब का व्यापार करने दुकानें खोलती है, तब क्या यह समझना चाहिए कि, ‘‘जान पर जाम भारी हो गया’’? मद्यपान करने को सामाजिक बुराई माना गया है। जिसका अर्थ होता है कि मदिरा पान से परिवार, समाज व राष्ट्र का नुकसान ही होता है। यहां आर्थिक नुकसान शामिल नहीं है। समाज-परिवार में अधिकांशत: होने वाली कलह की फसाद में शराब ही होती है। अब जो विभत्स दृश्य सामने आया है कि शराब पाने हजारों मद्यप्रेमियों की लम्बी लाइने दिखी। सोशल डिस्टेसिंग की धज्जियां उड़ी। पुलिस भी व्यवस्था करने में नाकाम रही। राज्य सरकार के द्वारा शराब खोलने की सर्वत्र आलोचना हो रही है। शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएं भी शराब दुकान खुलने से आक्रोशित हैं। इसी प्रकार, अन्य राज्यों के मजदूरों के लिए घर वापसी के लिए विशेष श्रमिक ट्रेनों को शुरू किया गया हैं, किन्तु श्रमिक यात्रियों को टिकट खरीदनी पड़ी है। अपितु, टिकट की दर को वाजिब रखा गया है। यात्रियों को भोजन-पानी, साबुन, टावेल-नैपकीन और सेनिटाइजेशन बगैर कोई पैसा लिए उपलब्ध कराया गया है। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि विदेशों से हमारे लोगों को स्वदेश लाने के लिए विशेष विमानों की सेवा उपलब्ध करायी जाती है, फिर मजदूर-गरीब वर्ग की घर वापसी बगैर मूल्य क्यों नहीं?
अब तो रेलवे टिवट का विवाद राजनैतिक बना है। महाराष्ट्र में कांग्रेस मंत्री नीतिन राउत ने सी.एम. ठाकरे को सूचित किया है कि मजदूरों की बगैर मूल्य घर वापसी होनी चाहिए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि, देश भर में मजदूरों की घर वापसी के लिए ट्रेनों का किराया का भुगतान कांग्रेस करेगी। सोनिया इस बात को बखूबी जानती है कि कोई भी सरकार उनकी ऐसी कोई आफर को स्वीकार नहीं करेगी। किन्तु, यह तो राजनैतिक दांव है। गरीबों को मदद पहुंचाने वचन का प्रश्न है। सरकार इसे स्वीकार नहीं करेगी तब भी कांग्रेस राजनैतिक लाभ उठाने इसका प्रचार तो करेगी ही। किन्तु, इस कवायद के बाद केन्द्र सरकार ने निर्णय लिया है कि 85′ खर्च केन्द्र सरकार और 15′ खर्च राज्य सरकार उठायेगी।
अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी मजदूरों का प्रश्न गंभीर विचार मांगता है। प्रधानमंत्री ने व्यापारियों-उद्योगपतियों से अपील की थी कि लाकडाउन में कर्मचारियों व मजदूरों के वेतन में कटौती मत करना। किन्तु, इसे कौन किस प्रकार से स्वीकार करेगा? अन्य राज्यों से आए शहरी क्षेत्रों में रोजीरोटी कमाने आए मजदूर अपनी घर वापसी चाहते हैं। पिछले दो माहों में कल कारखाने के मालिकों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है। उधर, मजदूरों को ट्रेन में बैठने के पहले मेडिकल सर्टिफिकेट लेनें के 200 से 400 रूपए खर्च करने पड़ते हैं। ट्रेन उपलब्ध नहीं हुई तो बस किराए की दुगनी कीमत चुकाते हैं।
वास्तव में लाकडाउन से आर्थिक प्रश्न गहराया है। घर वापसी से व्यापार-उद्योग शुरू करने में बहुत विलम्ब होगा। कोरोना महामारी के साथ आर्थिक समस्या और मजदूरों की घर वापसी भी एक राष्ट्रीय आपत्ति है।